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[ पट्टावली-पराग
श्री पंडित मेहमुनीससीसि रची पाटपरंपरा । जे भविभावि भरणस्यइ अनइ सुरणस्यइ वरस्यइ सिद्धि स्वयंवरी॥३६॥
इति श्री पट्टावली सज्झाय समाप्तः ।
हमारी एक लघु पट्टावली में विजयदानसूरि को ५६३ पट्ट पर लिख कर ५७३ पट्ट पर श्री देवचन्द्रसूरि का नाम लिखा है, फिर हीरविजयसूरि और विजयसेनसूरि के बाद विजयदेवसूरि का नाम न होने से ज्ञात होता है कि लेखक ने विजयदेवसूरि के बदले में ही देवचन्द्रसूरि का नाम लिख दिया है। विजयसेन के बाद विजयसिंह, विजयप्रभ, विजयरत्न, विजयक्षमा, विजयदया, विजयधर्म और विजयजितेन्द्रसूरि के नाम क्रमः लिखे गये हैं।
इसी पट्टावली में उद्योतनसूरि के बाद सर्वदेवसूरि, देवसूरि और यशोभद्रसूरि के नाम लिखे हैं, द्वितीय सर्वदेवसूरि का नाम नहीं लिखा । यह पट्टावली भी किन्हीं यतिजी के हाथ की लिखी हुई है ।
हमारी एक तपागच्छीय पट्टावली है जो कल्पसत्र के टबार्थ के अन्त में लिखी हुई है। लेखक का नाम श्री खुशालचन्द्रजी, श्री भुवनचन्द्रगरिण के शिष्य थे और संवत् १७८४ के चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को जोधपुर में लिखी गई थी। पट्टावली का पट्टक्रम व्यवस्थित है।
तपा-पट्टावली - ५ पत्र की अपूर्ण है, श्री जगच्चन्द्रसूरि तक की पाटपरम्परा इसमें दी हुई है।
इसी पट्टावली के प्रार्य स्थूलभद्र के दीक्षा आदि का हिसाब निम्न ढंग से दिया गया है -
३० वर्षान्ते दीक्षा, २० वर्ष श्रामण्य पर्याय, ५० वर्षे सूरिपद, ४६ वर्ष तक युग प्रधान पद भोगा।
देवसूरि के पट्टधर द्वितीय सर्वदेवसरि को न लिखकर सीधा यशोभद्रसूरि को बताया है।
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