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चतुर्थ- परिच्छेद ]
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"संस्कृत भाषा के अभ्यासी ऐसे भी साधु संघ में हैं, जिन्होंने एकएक दिन में पांच-पांच सौ व सहस्र - सहस्र श्लोकों की रचना की है ।"
ठीक तो है जिस संघ में प्रतिदिन पांच-पांच सौ और सहस्र - सहस्र श्लोक बनाने वाले साधु हुए हैं उस संघ में संस्कृत-साहित्य के तो भण्डार भी भर गए होंगे, परन्तु दुःख इतना ही है कि ऐसे संघ की तरफ से एक भी संस्कृत ग्रन्थ मुद्रित होकर प्रकाशित हुआ देखने में नहीं श्चाया ।
लवजी के शिष्य सोमजी हुए ।
हरिदासजी के शिष्य वृन्दावनजी हुए । वृन्दावनजी के भवानीदासजी हुए। भवानीदासजी के शिष्य मलूकचन्दजी हुए । मलूकचन्दजी के शिष्य महासिंहजी हुए । महासिंहजी के शिष्य खुशालरामजी हुए । खुशालरामजी के शिष्य छजमलजी हुए । रामलालजी के शिष्य अमरसिंहजी हुए ।
अमरसिंहजी का शिष्य परिवार श्चाजकल पंजाब में मुख बांध कर विचरता है ।
लवजी के शिष्यों का परिवार मालवा और गुजरात में विचरता है ।
"समकित सार" के कर्त्ता जेठमलजी धर्मदासजी के शिष्यों में से थे श्रीर उनके प्राचरण ठीक न होने के कारण उनके चेले देवीचन्द श्रीर मोतीचन्द दोनों जन उनको छोड़ कर जोगराजजी के शिष्य हजारीमलजी के पास दिल्ली में चाकर रहे थे ।
ऊपर हमने जो लौंकामत की और स्थानकवासी लवजी की परम्परा लिखी है वह पूर्वोक्त प्रमोलकचन्दजी के हाथ से लिखी हुई ढुण्ढकमत की पट्टावली के ऊपर से लिखी है, इस विषय में जिस किसी को शंका हो, वह हस्तलिखित मूल प्रति को देख सकता है ।
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