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चतुर्थ-परिच्छेद ]
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होकर पूजा, दर्शन प्रादि जो श्रमसाध्य कार्य थे, उन्हें छोड़ छोड़कर लौंका के मनुयायी बन गये, इसमें लौका मौर इनके अनुयायियों की बहादुरी नहीं, विध्वसंक पद्धति का ही यह प्रभाव है, मनुष्य को उठाकर ऊचे ले जाना पुरुषार्थ का काम है, कार खड़े पुरुष को धक्का देकर नीचे निराना पुरुषार्थ नहीं कायरता है, जैनों में से हो पूजा आदि की श्रद्धा हटाकर शाह लौका, लवजी, रूपजी, धर्मसिंह आदि ने अपना बाडा बढाया, यह वस्तु प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती, इनकी प्रशंसा तो हम तब करते जब कि ये अपने त्याग और पुरुष यं से आकृष्ट करके जैनेतरों को जैनधर्म की तरफ खींचते और शिथिलाचार में डूबने वाले तत्कालीन यतियों को अपने आदर्श और प्रेरणा से शिथिलाचार से ऊंचा उठाने को बाध्य करते ।
भिक्षुत्रितय चैत्यवासियों द्वारा लोंका आदि को कष्ट दिये जाने की बात कहता है, इसके पुरोगामी लेखक शाह वाडीलाल मोतीलाल तथा स्थानकवासी साधु श्री मणिलालजी ने भी यही राग अलापा है कि यतियों ने लौकाशाह को कष्ट दिया था, परन्तु यतियों पर दिये जाने वाले इस मारोप की सच्चाई को प्रमाणित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं बताया, वास्तव में यह हकीकत लौकाशाह को महान् पुरुष ठहराने के अभिप्राय से कलित गढी है । ईसाइयों के धर्मप्रवर्तक "जेसस काईष्ट' को उनके विरोधियों ने क्रॉस पर लटकाया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग सारा यूरोप उसका अनुयायी बन गया था, इसी प्रकार लौका को कष्ट-सहिण्णु महापुरुष बताकर लोगों को उसकी तरफ खोंचने का लौंका के भक्तों का यह झूठा प्रचार मात्र है । लौंका ने तो तत्कालीन किन्हीं भी साधुनों के साथ मुकाबला करने की कोई बात नहीं लिखी, परन्तु लौंकाशाह के वेशधारी शिष्यों के साथ श्री लावण्यसमय प्रादि अनेक विद्वान् साधु चर्चा शास्त्रार्थ में उतरे थे और उनको पराजित किया था, लेकिन यह प्रसंग कोई उनको कष्ट देने का नहीं माना जा सकता, समाज के अन्दर फूट डालने मर हजारों वर्षों से चले पाते धार्मिक मार्ग में बखेडा डालने वे कारण उन पर किसो ने कटुशब्द प्रहार अवश्य किए होंगे और यह होना अत्याचार नहीं है, ऐसी बातें तो लौका के बाड़े में से भाग छूटने वालों पर लौका के अनुया. यियों ने भी की हैं, देखिये -
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