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चतुर्थ परिच्छेद ]
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में इसके लेखक, "ऋषि जेठमलजी ने मूर्तिपूजक जैन सम्प्रदाय का "हिंसाधर्मी" यह नाम रक्खा है और सारी पुस्तक में उनको इसी नाम से संबोधित किया है । "सम्यक्त्व - शल्योद्धार" में जेठमलजी की इस भाषा का ही प्रत्याघात हैं और उसके लेखक ने "मूढ़जेठाॠष, निन्हव" इत्यादि शब्दों के प्रयोगों से लेखक ने उत्तर दिया है । जेठमलजी के "समकितसार गत" अज्ञान को देखकर बीसवीं शती के पंजाब बिहारी स्थानकवासी साधुत्रों के मन में आया कि संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं का जानना जैनसाधुओं के लिए जरूरी है, इसके परिणामस्वरूप कतिपय बुद्धिशाली स्थानकवासी साधुनों ने संस्कृत भाषा सीखी और हस्तलिखित सटीकसूत्र पढ़े । संस्कृत सीखने के बाद सटीक सूत्रों के पढ़ने से वे समझने लगे कि सूत्रों में अनेक स्थानों पर मूर्तिपूजा का विधान है और दिनभर मुंह पर मुंहपत्ति बांधना शास्त्रोक्त नहीं है, इन दो बातों को पूरे तौर पर समझने के बाद उनकी श्रद्धा वर्तमान स्थानकवासी सम्प्रदाय में से निकल जाने की हुई, प्रथम श्री बूटेरायजी, श्री मूलचन्दजी, श्री वृद्धिचन्दजी नामक तीन श्रमण मुंहपत्ति छोड़कर सम्प्रदाय से निकल गये, शत्रुञ्जय आदि तीर्थों की यात्रायें कर श्री बूटेरायजी ने अहमदाबाद आकर पं० मरिणविजयजी के शिष्य बने, नाम बुद्धिविजयजी रक्खा। शेष दो साधु बुद्धिविजयजी के शिष्य बने और क्रमश: मुक्तिविजयजी, वृद्धिविजयजी के नाम से प्रसिद्ध हुए । इसके अनन्तर लगभग दो दशकों के बाद श्री श्रात्मारामजी श्री बीसनचन्दजी आदि लगभग २० साधु स्थानकवासी सम्प्रदाय छोड़कर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में प्राये और बुद्धिविजयजी आदि के शिष्य बने, इस प्रकार सम्प्रदाय में से पठित साधुत्रों के निकल जाने से स्थानकवासी सम्प्रदाय में संस्कृत व्याकरण यादि भाषा विज्ञान के ऊपर से श्रद्धा उठ गई और व्याकरण को तो वे 'व्याधिकरण" मानने लगे ।
बीसवीं शती का प्रभाव :
...यों वो अन्तिम दो शतियों से जैन श्रमरणों में संस्कृत का पठन-पाठन बहुत कम हो गया था, परन्तु बीसवीं शती के उत्तरार्ध में संस्कृत भाषा की
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