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चतुर्थ-परिच्छेद ]
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व्याकरण पढ़े हुए कई साधु सम्प्रदाय छोड़कर चले गये थे, श्री फूलचन्दजी तथा उनके शिष्य-प्रशिष्य भी साधारणतया व्याकरण पढ़े हुए हैं, तो उनके लिए भी "व्याकरण व्याधिकरण" होना ही था, यदि ये सम्प्रदाय में से निकल जाते तो इतना ही च्याधिकरण" होता, अन्यथा इन्होंने सूत्रों के पाठ निकालकर सूत्रों को जो खण्डित किया है और इस प्रक्रिया द्वारा सूत्रों की प्राचीनता में जो विकृति उत्पन्न की है, इसके परिणामस्वरूप भविष्य में कोई भी जैनेतर संशोधक विद्वान् इन सूत्रों को छूएगा तक नहीं, क्योंकि आगमों को मौलिकता ही उनका खरा जौहर है । वह फूलचन्दजी ने उनके सम्प्रदाय मान्य ३२ आगमों में से खत्म कर दिया है । अब उन पर मंस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती भाषा की टीकाएँ लिखवाते रहें और छपवाते रहें, जैन आगमों के आधार से जैनधर्म की प्राचीनता, जैनर्मियों की प्राचीन सभ्यता और प्रागम-कालीन जैनों के आचार-विचार जानने के लिए ये "स्थानकवासी आगम" किसी काम के नहीं रहे । शोध, खोज, करने वालों के लिए ये पागम बीसवीं सदी के बने हुए किसी भी ग्रन्थ संदर्भ से अधिक महत्त्व के नहीं रहे।
भिक्षुत्रितय 'सुत्तागमे' के दोनों पुस्तकों में लिखता है - "पाठ शुद्धि का पूरा-पूरा ध्यान रक्खा है, इसके सम्पादन में शुद्धि प्रतियों का उपयोग किया गया है।"
सम्पादकों की पाठ-शुद्धि का अर्थ है इनको मान्यता में बाधक होने वाले पाठों को "हटाना" । अन्यथा कई स्थानों पर सम्पादकीय अशुद्धियां ही नहीं बल्कि सम्पादकों द्वारा अपनी होशियारी से की गई अनेक अशुद्धियां सूत्रों में दृष्टिगोचर होती हैं, इस स्थिति में सम्पादन में शुद्ध प्रतियों का उपयोग करने की बात केवल दम्भपूर्ण है, क्योंकि स्थानकवासियों के पास जो भी सूत्रों के पुस्तक होंगे वे अशुद्धियों के भण्डार ही होंगे, क्योंकि इनके पुस्तकालयों तथा स्थानकों में मिलने वाले पुस्तक बहुधा इनके अनपढ़ साधुनों के हाथ के लिखे हुए ही मिलते हैं। सोलहवीं शती में लौका का मत निकला और अठारहवीं शती के प्रारंभ में स्थानकवासी ऋषियों ने टिब्बे के साथ सूत्र लिखने शुरू किये थे, लिखने वाले साधु नकल करने
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