Book Title: Pattavali Parag Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 482
________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४८१ जानने वाला साधु उनकी श्राज्ञा के बिना कडुआ को दोक्षा देने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ । दीक्षा लेने की धुन में कडुना अनेक साधुनों का परिचय करता हुआ अहमदाबाद पहुँचा, वहां रूपपुरा में प्रागमिक पं० हरिकीर्ति शुद्ध प्ररूपक संवेग पाक्षिक साधु थे, वे अपनी शक्ति के अनुसार क्रिया कलाप करते थे । गुणी साधुम्रों को वन्दन करते थे, परन्तु प्राप किसी से वन्दन नहीं करवाते कहते मैं वन्दन-योग्य नहीं हैं, तुझ से शास्त्रोक्त साधु का आचार नहीं पलता । हरिकीर्ति रूपपुरे की एक शून्य शाला में रहते थे, कडुवा ने उनका व्यवहार देखा और उसको पसन्द आया, उसने हरिकीर्तिजी के सामने अपना परिचय देते हुए कहा - मेरी इच्छा संसार छोड़कर साधु होने की है, मुझे दीक्षा दीजिये। हरिकीर्ति ने सोचा मैं अगर इसको योग्य मार्ग न दिखाऊँगा तो यह किसी कपटी कुगुरु के जाल में फंस जायगा, उन्हों ने कडुवा से कहा प्रथम दशवैकालिक के चार अध्ययन पढ़ने से ही दीक्षा पाली जा सकती है, इस वास्ते पहले तुम दशवेकालिक के ४ अध्ययन पढो, उसने स्वीकार किया और हरिकीर्ति के पास दशवैकालिक के चार अध्ययन अर्थ के साथ पढ़े । अध्ययन पढ़ने के वाद कडुआ ने उन्हें पूछा - पूज्य ! सिद्धान्त मार्ग तो इस प्रकार है, तब आजकल साधु इस मार्ग के अनुसार क्यों नहीं चलते ? हरिकीर्ति ने कहा अभी तुम पढ़ो और सुनों, बाद में सिद्धान्त की चर्चा में उतरना, महता कडुवा ने पन्यास के पास सारस्वत व्याकरण, काव्यशास्त्र, छंदशास्त्र, चिन्तामरिण प्रमुख वाद शास्त्र पढ़ा और आचारांगादि सूत्रों के अर्थ सुनकर प्रवीण हुम्रा, बाद में पन्यास हरिकीर्ति ने कडुमा को कहा - हे वत्स ! आचारांगादि सूत्रों में जो साधु का आचार लिखा है, वह आज के साधुनों में देखा नहीं जाता, आज के सर्व यति पूजा-प्रतिष्ठा कल्पितदान आदि कार्यों में लगे हुए है, जिनमन्दिरों के रक्षक बने हुए हैं, क्योंकि वर्तमानकाल में दसवां अच्छेरा चल रहा है, यह कहकर उसने "ठाणांग" सूत्र की आश्चर्य - प्रतिपादक गाथाएँ, 'संघपट्टक" की गाथाएँ और " षष्टिशतकप्रकरण" की गाथाएँ सुनाकर वर्तमानकालीन साधुओं की आचारहीनता का प्रतिपादन किया और उसकी श्रद्धा कुण्ठित करने के लिए हरिकीर्ति ने पिछले समय में जैनश्रमणों में होने वाली घड़ाबन्दियों का विवरण सुनाया, उन्होंने कहा - Jain Education International 2010_05 - For Private & Personal Use Only - - www.jainelibrary.org

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