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चतुर्थ-परिच्छेद ]
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हुए, दरमियान पार्ववन्द्र हेबतपुर में उपाश्रय बनाने वाले थे। उनका अभिप्राय कडुग्रामतियों को अपनी तरफ खींचने का था, परन्तु महेता प्रानन्द ने सोचा कि हेबतपुर में उपाश्रय हो गया तो हमारे साधर्मी शिथिल बन जायेंगे, इस कारण से ब्रह्मा ऋषि से मेहता प्रानन्द ने कहा- आप चिन्तामरिण तक पढ़े हुए पण्डित होते हुए भी प्रापको पद नहीं, यह क्या बात है ?, ब्रह्मा ऋषि ने कहा- आप भी तो उनके मुकाबिले के हैं, आप अपना नया गच्छ ही चला दो, आपको भी पूर्णिमा को पाक्षिक करने की श्रद्धा तो है ही ? ब्रह्मा ऋषि ने कहा - तुम्हारे कहना सत्य है, शास्त्र के प्राधार से मैं पूर्णिमा को पाक्षिक स्थापित कर सकता हूँ, परन्तु मेरे पास श्रावक नहीं हैं, इस पर मेहता प्रानन्द ने कहा - मैं आपका श्रावक, यह कहकर मानन्द ने कहा - इसके लिए जो भी खर्च खाते की जरूरत हुई तो मैं करूंगा। ऋषि ब्रहा ने नया गच्छ कायम किया, म० प्रानन्द के प्रेम से उन्होंने नागिल सुमति की चतुष्पदी जोड़कर प्रानन्द को दो। पूर्णिमा को पाक्षिक कायम किया। पावचन्द्र जो उपाश्रय करवाने वाले थे, वह रुक गया, वहां के गृहस्थ ब्रह्मा ऋषि के गच्छ में मिल गए थे इधर राधनपुर में शाह श्री जीवराज ने सुना कि मेहता प्रानन्द ब्रह्मामति हो गया, इससे शाह जीवराज ने मेहता प्र.नन्द को पत्र लिखकर पूछा कि - हमने ऐसी बातें सुनी हैं सो क्या बात है ? इस पर मेहता प्रानन्द ने ऋषि ब्रह्मा के पास प्राकर "मिच्छामि दुक्कडं' देकर बोला - मैंने प्रयोजन-विशेष से तुमको साथ दिया था सो तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया है, अब मैं अपने उपाश्रय जाऊंगा। बाद में प्रानन्द ने शाह श्री जीवराज को पत्र द्वारा अपनी सर्व हकीकत लिखी जिसे पढ़कर शह जीवराज बहुत खुश हुए।
शाह श्री जीवराज बड़े प्रभावक ये। उन्होंने सं० १६०६ का चतुर्मासक पाटन में किया और वहीं से प्राबु प्रमुख की यात्रा की।
सं० १६१६ में शाह श्री जोवराज ने थराद में चतुर्मास किया बहुत उत्सव हुए, मासखमण प्रमुख तप हुए और शाह डुगर को संवरी बनाया।
सं० १६१७ में शा० जीवराज राधनपुर चतुर्मासक रहे थे, दरयियान
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