Book Title: Pattavali Parag Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 501
________________ ५०० ] [ पट्टावली-पराग लाभो, भारषा ने वारणा लेकर चीज तुरन्त दे दी । वह वस्तु शाहश्रीं के पास प्रायी, शाही ने औषध प्रयोग किया। बाद में शाह श्री वीरा ने शाह श्री जीवराज को कहा - देख लिया न, संसार में सब स्वार्थी हैं, इसलिए प्राज से तुम संख्या मात्र ममता-रहित होकर द्रव्य रक्खो, श्रामन्त्रण से अथवा विना श्रमिन्त्ररण से भोजन करने जाम्रो, हाथ में मुद्रिका पहनो, दो-चार वस्त्र ज्यादा रक्खो, समय विषम है, अपन तो द्वादशव्रतधारी श्रावक हैं, जितना भी संक्षेप करे उतना अच्छा, इनके अतिरिक्त दूसरी भी अनेक प्रकार की शिक्षा दी और शाह श्री वीरा १६०१ में सात दिन का अनशन पालकर दिवंगत हुए । साह वीस १४ वर्ष गृहस्थावस्था में रहे, २५ वर्ष सामान्य संवरी के रूप में रहे, ३० वर्ष पट्टधर रहकर ६६ वर्ष की उम्र में शाह जीवराज को अपने पद पर स्थापन कर स्वर्गवासी हुए । ४. शा० वीरा के पट्टधर शाह जीवराज : जीवराज का जन्म ब्रहमदाबाद में परीख जगपाल की भार्या बाई सौभी की कोख से सं० १५७८ में हुआ था, संवत् १५६० में शा० वीरा के पास संबरी बने, १२ वर्ष गृहस्थ रूप में, ११ वर्ष सामान्य संवरीरूप में संवरी रहने के पश्चात् श्राप पट्टधर बने थे । जीवराज बड़े यशस्वी थे । प्रापने खम्भात, ग्रहमदाबाद, पाटन, राधनपुर, मोरवाड़ा, थराद प्रमुख अनेक स्थलों में मन्दिर तथा उपाश्रय करवाये, स्थान-स्थान पर श्रावकों को स्थिर रक्खा । I सं० १६०३ में थराद में शाह राघव दिवंगत हुए और उनके पट्टधर संवत् १६०४ में शाह जायसा ( सी ? ) बैठे । शाह नरपति को संवरी बनाया, शाह साजन को संवरी किया । सं० १६०३ में ब्रह्मामत की उत्पत्ति हुई सो लिखते हैं : शा० जीवराज राधनपुर में ठहरे हुए थे, उस समय राजनगर में पाश्चन्द्र ने विजयदेव को पद दिया जिससे ऋषि ब्रह्मा मन में नाराज Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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