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[ पट्टावलो-पराग
सं० १५७० में लौकामत को छोड़कर श्री विजजऋषि ने मूर्तिपूजा मानना स्वीकार किया; तब लौंका के अनुयायियों ने उन पर कैसे वाग्वाण बरसाये थे, उसका नमूना निम्नलिखित केशवजी ऋषि कृत लौंकाशाह के सिलोके की कडी पढिए -
"लवरण ऋषि भीमाजी स्वामी, जगमाला रुषि सखा स्वामी । Hatat freat कुमति पापी तेरगइं वली जिनप्रतिमा थापी ॥ २३ ॥ "
इसी प्रकार लोकाशाह के विरोध में मूर्तिमण्डन पक्ष के विद्वानों ने लौकाशाह के लिए "लुम्पक" "लुंकट" श्रादि शब्दों से कोसा होगा, तो यह कुछ कष्ट देना नहीं कहा जा सकता । लौंका की ही शती के लकागच्छीय भानुचन्द्र यति, केशवंजो ऋषि उन्नीसवीं शती के मध्यभागवत "समकित सार" के कर्त्ता श्री जेठमलजी ऋषि आदि ने लौंकाशाह तथा उनके मत के सम्बन्ध में बहुत लिखा है, फिर भी उनमें से किसी ने भी यह सूचन तक नहीं किया कि चैत्यवासियों ने लौकाशाह को कष्ट दिया था, वास्तव में लौंकाशाह की तरफ जन समाज का ध्यान खींचने के लिए बीसवीं सदी के लेखकों की यह एक कल्पना मात्र है |
भिक्षुत्रिय मागे कहता है - वर्तमानकालीन जैन साहित्य में चैत्यवासियों ने अनेक प्रक्षेप कर उन्हें परस्पर विरोधी बना दिया है, इसलिए लौका और उसके अनुयायी धर्मशी, प्रादि ने ३२ सूत्रों को ही मान्य रक्खा है । भिक्षुत्रितय की ये बातें उनके जैसे ही सत्य मान गे, विचारक वर्ग नहीं, जैन प्रागमों का शास्त्रवरिंगत स्वरूप आज नहीं है, इस बात को हम स्वयं स्वीकार करते हैं, परन्तु लौंका के अनुयायी जिन ३२ श्रागमों को गणधर कृत मानते हैं, वे भी काल के दुष्प्रभाव से बचे हुए नहीं हैं, उनमें सौकर्यार्थ संक्षिप्त किये गये हैं, एक दूसरे के नाम एक दूसरे में निर्दिष्ट किये हुए हैं, उनसे यही प्रमाणित होता हैं, कि सूत्रों में जिस विषय का वर्णन जहां पर विस्तार से दिया गया है, उसको फिर मूल-सूत्र में न लिखकर उसी वर्णन वाले सूत्र का प्रतिदेश कर दिया है, जैन सिद्धान्त के द्वादश आगम गरणधर कृत होते हैं तब उपांग, प्रकीर्णक आदि शेष श्रुतस्यविकृत होते हैं ।
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