Book Title: Pattavali Parag Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 468
________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४६७ प्रकट हुए। उन्होंने जनता को सन्मार्ग सुझाया और उस पर चलने की प्रेरणा दी xxx जिससे लोगों में क्रान्ति घोर जागृति उत्पन्न हुई तथा लवजी, धर्मशी, धर्मदासजी, जीवराजजी जैसे भव्य भावुकों ने धर्म की वास्तविकता को अपनाया और उसके स्वरूप का प्रचार आरम्भ किया; परिणामस्वरूप आज भी उनकी प्रेरणाओं को जीवित रखने वालों की संख्या ५ लाख से कहीं अधिक पाई जाती है । लौंकाशाह सहित इन चारों महापुरुषों ने "चंत्यवासी मान्य अन्य आगमों में परस्पर विरोध एवं मनघड़न्त बातें देखकर ३२ आगमों को ही मान्य किया ।" भिक्षुत्रितय चैत्यवासी युग के बाद लौंकाशाह जैसे क्रान्तिकारी पुरुषों के उत्पन्न होने की बात कहता है, जो प्रज्ञानसूचक है, क्योंकि विक्रम की चौथी शती से ग्यारहवीं शती तक शिथिलाचारी साधुओं का प्राबल्य हो चुका था। फिर भी वह उनका युग नहीं था । हम उसे उनकी बहुलता वाला युग कह सकते हैं, क्योंकि उस समय भी उद्यतविहारी साधुनों की भी संख्या पर्याप्त प्रमारण में थी । शिथिलाचारी संख्या में अधिक होते हुए भी उद्यतविहारी संघ में अग्रगामी थे। स्नानमह, प्रथमसमवसरण नादि प्रसंगों पर होने वाले श्रमरण-सम्मेलनों में प्रमुखता उद्यतविहारियों की रहती थी। कई प्रसंगों पर वैहारिक श्रमणों द्वारा पार्श्वस्यादि शिथिलाचारी फटकारे भी जाते थे, तथापि उनमें का अधिकांश शिथिलता की निम्न सतह तक पहुंच गया था और धीरे-धीरे उनको संख्या कम होती जाती थी । विक्रम की ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध तक शिथिलाचारी धीरे-धीरे नियतवासी हो चुके थे और समाज के ऊपर से उनका प्रभाव पर्याप्त रूप से हट चुका था । भले ही वे जातिगत गुरुनों के रूप में अमुक जातियों और कुलों से अपना सम्बन्ध बनाए हुए हों, परन्तु संघ पर से उनका प्रभाव पर्याप्त मात्रा में मिट चुका था, इसी के परिणाम स्वरूप १२ वीं शती के मध्यभाग तक जैनसंघ में अनेक नये गच्छ उत्पन्न होने लगे थे । पौमिक, चांचलिक, खरतर, साधुपौमिक और प्रागमिक गच्छ ये सभी १२ वीं श्रीर १३ वीं शती में उत्पन्न हुए थे और इसका कारण शिथिलाचारी चैत्यवासी कहलाने वाले साधुनों की कमजोरी थी । यद्यपि उस समय में भी वर्द्धमान 1 Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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