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[ पट्टावलो-पराग
पंचसंवर-पंचाश्रवमय प्रश्नव्याकरण बनाया और प्राचीन प्रश्न-व्याकरण के स्थान में रखा। भाषा की प्राचीनता अर्वाचीनता की मीमांसा करने वाला भिक्षुत्रितय यह बताएगा कि प्राचारांग, सूत्रकृतांग की भाषा में और भागे के नव अगसूत्रों की भाषा में क्या अन्तर पड़ा है, और उनमें प्रयुक्त शब्दों तथा वाक्यों में कितना परिवर्तन हुआ है ?
अंग्रेज विचारकों के अनुयायी बनकर जैन-आगमों की भाषा को महाराष्ट्रीय प्राकृत के असर वाली मानने के पहले उन्हें देशकाल-सम्बन्धी इतिहास जान लेना आवश्यक था। डा० हानले जैसे अंग्रेजों की अपूर्ण शोध के रिपोर्टों को महत्त्व देकर जैन मुनियों के दक्षिण-देश में जाने की बात जो दिगम्बर भट्टारकों की कल्पनामात्र है, सच्ची मानकर जैन-आगमों में दक्षिणात्य प्राकृत का असर मानना निराधार है। न तो मौर्य चन्द्रगुप्त के समय में जैनश्रमण दक्षिण प्रदेश में गए थे, न उनकी अर्द्धमागधी सौत्र भाषा में दक्षिण-भाषा का असर हुआ या । जो दिगम्बर विद्वान् कुछ वर्षों पहले श्रुतधर भद्रबाहु स्वामी के चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण में जाने की बात करते थे वे सभी आज मानने लगे हैं कि दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दूसरे थे, श्रुतधर भद्रबाहु और मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त नहीं, क्योंकि दिगम्बरों के ग्रन्थों में भद्रबाहु का और चन्द्रगुप्त का दक्षिण में जाना उज्जनी नगरी से बताया है, और उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी में अनुमानित किया है। आज तो डा० ज्योतिप्रसाद जैन जैसे शायद ही कोई अति-श्रद्धालु दिगम्बर विद्वान् श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण में जाने की बात कहने वाले मिलेंगे। श्रवणबेल्गोल आदि दिगम्बरों के प्राचीन तीर्थों के शिलालेखों के प्रकाशित होने के बाद अब विद्वानों ने यह मान लिया है कि दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु श्रुतकेवली नहीं किन्तु दूसरे ज्योतिषी-भद्रबाहु हो सकते हैं। इसका कारण उनके प्राचीन तीर्थों में से जो शिलालेख मिले हैं वे सभी शक की आठवीं शती और उसके बाद के हैं। हमारी खुद की मान्यता के अनुसार तो अधिक दिगम्बर साधुओं के दक्षिण में जाने सम्बन्धी दंतकथाएं सही हों, तो भी इनका समय विक्रम की छट्ठी शती के पहले का नहीं हो सकता। दिगम्बर-सम्प्रदाय को ग्रंथप्रशस्तियों तथा पट्टावलियों में
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