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[ पट्टावली-पराग
लौंकाशाह, लौंकागच्छ भौर स्थानकवासी सम्प्रदाय के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों ने लिखा है । वाडीलाल मोतीलाल शाह ने अपनी “ऐतिहासिक नोंध " में, संत बालजी ने " धर्मप्रारण लोकाशाह" में, श्री मरिण - लालजी ने "प्रभुवीर पट्टावली" में मोर प्रन्यान्य लेखकों ने इस विषय के लेखों में जो कुछ लिखा है, वह एक दूसरे से मेल नहीं खाता, इसका कारण यही है कि सभी लेखकों ने अपनी बुद्धि के अनुसार कल्पनाओं द्वारा कल्पित बातों से अपने लेखों को विभूषित किया है । इन सब में शाह वाडीलाल मोतीलाल सब के अग्रगामी हैं । इनकी असत्य कल्पनाएं सब से बढ़ी चढ़ी हैं, इस विषय का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा । लौंकागच्छ के आचार्य श्री मेघजी ऋषि अपने २५ साधुत्रों के साथ लौंकामत को छोड़ कर तपागच्छ के प्राचार्य श्री विजयहीरसूरिजी के शिष्य बने थे । इस घटना को बढ़ा-चढ़ा कर शाह वाडीलाल लौंकागच्छ के गच्छ में जाने की बात कहते हैं । अतिशयोक्ति की भी परन्तु शाह ने इस बात का कोई ख्याल नहीं किया । इसी प्रकार शाह वाडीलाल ने अपनी पुस्तक " ऐतिहासिक नोंध " में अहमदाबाद में मूर्तिपूजक और स्थानकवासी साधुनों के बीच शास्त्रार्थ का जजमेन्ट लिख कर अपनी श्रसत्यप्रियता का परिचय दिया है, शाह लिखते हैं
५०० साधु तपा
कोई हद होती है,
"आखिर सं० १८७८ में दोनों ओर का मुकद्दमा कोर्ट में पहुँचा । सरकार ने दोनों में कौन सच्चा कौन झूठा ? इसका इन्साफ करने के लिए दोनों ओर के साधुनों को बुलाया । "स्था० की ओर से पूज्य रूपचन्दजी के शिष्य जेठमलजी श्रादि २८ साधु उस सभा में रहने को चुने गये" और सामने वाले पक्ष की भोर से "बीरविजय श्रादि मुनि और शास्त्री हाजिर हुए।" मुझे जो यादी मिली है, उससे मालूम होता है कि मूर्तिपूजकों का पराजय हुआ और मूर्तिविरोधियों का जय हुआ ।" शास्त्रार्थं से वाकिफ होने के लिए जेठमलजी -कृत "समकित सार" पढ़ना चाहिए × × × १८७८ के पोष सुदि १३ के दिन मुकद्दमा का जजमेन्ट ( फैसला ) मिला ।"
ऐ० नों० पृ० १२६ ।
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