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तृतीय-परिच्छेद ]
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मुझे आचार्य पद पर बैठा दिया है, इसलिए संघ के साथ विचरता हुग्रा अज्ञात देशों की भाषा से भी परिचित हो जाऊंगा और साथ-साथ तीर्थयात्रा भी हो जायगी। इसके अतिरिक्त संघ ने अत्यन्त प्रार्थना की कि प्रभो ! अनेक चार्वाक लोकों से भरी हुई गुर्जर भूमि में तीर्थ प्राए हुए हैं, हम वहां तीर्थ यात्रार्थं जाते हैं। कोई नास्तिक हमारे सामने तीर्थ यात्रा का निषेध प्रमाणित करेगा तो हम प्रज्ञानी उसको क्या उत्तर देंगे, इसलिए श्राप संघ के साथ अवश्य पधारें ताकि जिनशासन का लाघव न हो, इसलिए हम संघ के साथ जा रहे हैं ।" श्री अकलंकदेवसूरिजी ने जिनपतिसूरिजी के इस उत्तर को योग्य माना । दोनों प्राचार्यों के बीच देर तक ज्ञान-गोष्ठी होती रही । भिक्षा का समय हो जाने पर कलंकसूरि प्रपने स्थान पर गए ।
दूसरे दिन जिनपतिसूरि संघ के साथ कासहृद गए। वहां पौर्णमिक प्राचार्य श्री तिलकप्रभ अनेक साधुयों के साथ संघ के स्थान पर प्राए । परस्पर सुखवार्तादि शिष्टाचार हुआ और तिलकप्रभ के साथ श्रीपूज्य ने ज्ञानगोष्ठी की । अन्त में तिलकप्रभसूरि ने भी श्री पूज्य को प्रशंसा की ।
वहां से संघ प्रशापल्ली पहुंचा, वहां श्रावक क्षेमंकर अपने संसारी पुत्र प्रद्युम्नाचार्य को वन्दनार्थ वादिदेवाचार्य सम्बन्धी पोषधशाला में गया । वन्दन के बाद प्रद्युम्नाचार्य ने क्षेमंकर को कहा - जिनपतिसूरि को गुरु के रूप में स्वीकार कर अच्छा नहीं किया । क्षेमंकर ने कहा - मेरी समझ से तो मैंने अच्छा ही किया है । प्रद्युम्नसूरि ने कहा - मरुस्थली के जड़ लोगों को पाकर आपके गुरु ने अपने को सर्वज्ञ मान लिया है सो ठीक है, क्योंकि “निर्वृक्षे देशे एरण्डोऽपि कल्पवृक्षायते" परन्तु तुम्हारे जैसे देवसूरि के वचनामृत का पान करने वाले समझदारों का मनोभाव बदल गया, इससे हमारा दिल दुःखता है ।
वहां से आगे बढ़कर संघ ने स्तम्भनक, गिरनार यादि तीर्थों की यात्रा की । मार्ग की तकलीफ के कारण संघ शत्रुञ्जय नहीं गया ।
यात्रा से लौट कर संघ वापस प्राशापल्ली श्राया । इस समय क्षेमंकर ने जिनपति के साथ प्रद्युम्नाचार्य का शास्त्रार्थ होने की बात
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