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तृतीय-परिच्छेद ]
किया और सं० १४६१ में देलवाड़ा में स्वर्गवास प्राप्त किया, श्री जिनराजसूरि के पट्ट पर श्री जिनवर्धनसूरि हुए। जिनवर्धनमूरि -
जिनवर्धनसूरि को संवत् १४६१ में सागरचन्द्रसूरि ने प्राचार्य-पद पर स्थापित किया, यहां खरतरगच्छ में एक नया फाट पड़ा। जिनवर्धनसूरि से संवत् १४६१ में “पीपलिया" खरतरगच्छ उत्पन्न हुआ, तब श्री सागरचन्द्रसूरि ने सं० १४७५ के वर्ष में श्री जिनभद्रसूरि को प्राचार्य-पद पर स्थापित किया।
जिनभद्रसूरि .
___ जिनप्रभसूरि ने भावप्रभाचार्य, कोतिरत्नसूरि प्रमुख अनेक अचार्य बनाये, स्थान-स्थान पर पुस्तक लिखवाकर भण्डागार स्थापित करवाए, सं० १५१४ में जिनभद्रसूरि ने श्री कुम्भलमेर में स्वर्गवास प्राप्त किया, श्री जिनचन्द्रसरि -
श्री जिनभद्रसूरि के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए, जो १५१५ में जिनकीतिसूरि द्वारा प्राचार्य बने और धर्मरत्नसूरि, गुणरत्नसूरि मादि को आचार्य-पद पर बिठाया, सं० १५३७ में जिनचन्द्रसूरि का जैसलमेर में स्वर्गवास हुआ। श्री जिनसमुद्रसूरि__ श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर जिनसमुद्रसरि हुए, इनकी दीक्षा सं० १५२१ में और पदस्थापना १५३३ में जिनचन्द्रसूरि द्वारा हुई, आप सं. १५५५ में अहमदाबाद में परलोकवासी हुए ।
श्री जिनहंसवरि - __श्री जिनसमुद्रसूरि के पट्ट पर जिनहंससूरि हुए, इनका जन्म संवत् १५२४, दीक्षा सं० १५३५ में पौर आचार्य-पद १५५६ में शान्तिसागर द्वारा हुआ, सं० १५८२ में जिनहंस पाटण में स्वर्गवासी हुए, इनके समय में सं० १५६३ में शान्तिसागर द्वारा "प्राचार्यांय" गच्छ की उत्पत्ति हई ।
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