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केशवर्षि वशित लौकागना की पहावली (8)
भाणाजी ऋषि के पाट पर सुबुद्धिभद्र ऋषि हुए।
भीमाजी स्वामी जगमाल ऋषि सर्वा स्वामी
इस समय कुमति वीजा पापी निकला जिसने फिर जिन-प्रतिमा को स्थापना की । सर्वा स्वामी के बाद-रूपजी ।
जीवाजी।
कुवरजी। श्रीमलजी ऋषि जो विचर रहे हैं, इन पूज्य के चरणों को प्रणाम करके केशव ने यह गुरुपरम्परा गाई है ।
उपर्युक्त लौंकाशाह-सिलोका के लेख के श्री केशवजी ऋषि ने श्रीमल जी को अपना गुरु बताया है और श्रीमलजी लौकाशाह के आठवें पट्टधर श्री जीवर्षि के तीन शिष्यों में से एक थे, इससे सिलोका के लेखक केशवजी सं. १६०० के आसपास के व्यक्ति होने चाहिए। इनसे २५-३० वर्ष पूर्ववर्ती लौका-गच्छीय यति भानुचन्द्रजी लौका की मान्यता के सम्बन्ध में मन्दिरमागियों की तरफ से होने वाले आक्षेपों का उत्तर देते हुए कहते हैं"लौका यतियों को नहीं मानता, लौका सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, जिनपूजा, दान नहीं मानता इत्यादि।" क्या कहा ? लुका ने क्या उत्थान किया है ? वह तो दो बार से अधिक बार सामायिक करने, पर्वदिन बिना पौषध करने, १२ व्रत बिना प्रतिक्रमण करने, नागार-सहित
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