________________
४२२ ]
[ पट्टावली-पराग
___ सं० १५०८ में लौंका ने जैन साधुषों के विरोध में मन्दिर मूर्तिपूजा आदि का खण्डन करना शुरू किया, लगभग २५ वर्ष तक दयाधर्म-सम्बन्धी चौपाइयां सुना-सुनाकर लोगों को मन्दिरों का विरोधी बनाता रहा, फिर भी उसका उत्तराधिकारी बनकर उसका कार्य सम्हालने वाला कोई नहीं मिला।
सं० १५३४ में भाणा नामक एक बनिया उसे मिला, अशुभ कर्म के उदय से वह लौ का का अनन्य भक्त बना । इतना ही नहीं, वह लौका के कहने के अनुसार विना गुरु के ही साधु का वेश पहन कर प्रज्ञ लोगों को लोका का अनुयायी बनाने लगा। लौ का ने ३१ सूत्र मान्य रखे थे । व्यवहार सूत्रों को वह मानता नहीं था और माने हुए सूत्रों में भी जहां जिनप्रतिमा का अधिकार आता वहां मनःकल्पित अर्थ लगाकर उनको समझा देता।
सं० १५६८ में भागजी ऋषि का शिष्य रूपजी हुआ। सं० १५७८ में माघ सुदि ५ के दिन रूपजी का शिष्य जीवाजी हुना।
सं० १५८७ के चेत्र वदि १४ के दिन जीवाजी का शिष्य वृद्धवरसिंहजी नामक हुआ।
सं० १६०६ में उनका शिष्य वरसिंहजी हुआ।
सं० १६४६ में वरसिंहजी का शिष्य यशवन्त नामक हुआ और यशवन्त के पीछे बजरंगजी नामक साधु हुअा, जो बाद में लौ कागच्छ का प्राचार्य बना था।
उस समय सूरत के रहने वाले बोहरा वीरजी की पुत्री फूलांबाई के दत्तपुत्र लवजी ने लौंकाचार्यजी के पास दीक्षा ली और दोक्षा लेने के बाद उसने अपने गुरु से कहा - दशवकालिक सूत्र में जो साधु का आचार बताया है, उसके अनुसार आप नहीं चलते है। लवजी की इस प्रकार की बातों से बजरंगजी के साथ उनका झगड़ा हो गया और वह लौ कामत और अपने गुरु का सदा के लिए त्याग कर थोमण ऋषि आदि कतिपय लौ का साधुनों को साथ में लेकर स्वयं दीक्षा ली और मुख पर मुहपत्ति बांधी।
___Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org