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चतुर्थ- परिच्छेद ]
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" x x x इतना इतिहास देखने के बाद में पढ़ने वालों का ध्यान एक बात पर खींचना चाहता हूं कि स्थानकवासी व साधुमार्गी जैन-धर्म का जब से पुनर्जन्म हुआ तब से यह धर्म अस्तित्व में श्राया और आज तक यह जोर-शोर में था या नहीं ! अरे ! इसके तो कुछ नियम भी नहीं थे, यतियों से अलग हुए और मूर्तिपूजा को छोड़ा कि ढूंढिया हुए । x x x
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" x x x मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार इस तरकीब से जैन-धर्म का बड़ा भारी नुकसान हुआ, इन तीनों के तेरह सौ भेद हुए । xxx "
ऊपर के विवरण से सिद्ध होता है कि भाज का स्थानकवासीसम्प्रदाय लौंका गच्छ का अनुयायी नहीं है, किन्तु लौंकागच्छ से बहिष्कृत धर्मदासजी लवजी तथा स्वयं वेशधारी धर्मसिंहजी का अनुयायी है, क्योंकि मुँह पर मुँहपत्ति बाँध कर रहना उपर्युक्त तीन सुधारकों का ही प्राचार है । काशाह स्वयं असंयत दान का निषेध करते थे, तब उक्त क्रियोद्धारक अभयदान का शास्त्रोक्त मतलब न समझ कर पशुओं, पक्षियों को उनके मालिकों को पैसा देकर छोड़ाने को अभयदान कहते थे । आज तक स्थानकवासी-सम्प्रदाय में यह मान्यता चली श्रा रही है ।
प्राजकल के कई स्थानकवासी - सम्प्रदायों ने अपनी परम्परा में से शाह लौंका का नाम निकाल कर ज्ञानजी यति, अर्थात् "ज्ञानचन्द्रसूरिजी " से अपनी पट्टपरम्परा शुरु की है। खास करके पंजाबी और कोटा की परम्परा के स्थानकवासी साधु लौंका का नाम नहीं लेते, परन्तु पहले के Maiगच्छ के यति लौंकाशाह से ही अपनी पट्टपरम्परा शुरु करते थे । हमने पहले जिस लोकाशाह के शिलोके को दिया है उसमें केशवजी ऋषि द्वारा लिखी हुई पट्टावली केशवर्षि वरिंगत, "लौंकागच्छ की पट्टावली ( ६ ) " इस शीर्षक के नीचे दी है ।
श्री देवद्धि गरि के बाद ज्ञानचन्द्रसूरि तक के प्राचार्यों के नामों की सूची देकर केशवजी लौंकाशाह का वृत्तान्त लिखते हैं तथा लोकाशाह के उत्तराधिकारी के रूप में भारगजी ऋषि को बताते हैं और भागजी के बाद
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