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चतुर्थ-परिच्छेद ]
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"पुस्तक भंडार में से पुस्तक निकाले तो कुछ पाने दीमक खा गया था, यह देख यति ने उनके पास गए हुए मेहता लुका को कहा - महेताजी । एक जैन मार्ग का काम है, महेता ने कहा - कहिये क्या काम है ? यति ने कहा - सिद्धान्त के पांने दीमक खा गया है, उन्हें लिख दो तो उपकार होगा, लौका ने उनका वचन मान लिया । यति ने 'दशवकालिक" को प्रत लौका को दी। लौका ने मन में सोचा-वीतराग भाषित दयाधर्म का मार्ग दशवकालिक में लिखे अनुसार है, आजकाल के वेषधारी इस प्राचार को छोड हिंसा की प्ररूपणा करते हैं, वे स्वय धर्म से दूर हैं इसलिए लोगों को शुद्धधर्म-मार्ग नहीं बताते, परन्तु इस समय इनको कुछ कहूंगा तो यानेंगे नहीं, इसलिए किसी भी प्रकार से पहले शास्त्र हस्तगत करलू तो भविष्य में उपकार होगा, यह सोचकर महेता लुका ने दसवैकालिक को दो प्रतियां लिखी, एक अपने पास रखी, एक यति को दो । इस प्रकार सब शास्त्रों की दो-दो प्रतियां उतारी और एक-एक प्रति अपने पास रखकर खासा शास्त्र-संग्रह कर दिया। महेत' अपने घर पर सूत्र की प्ररूपणा करने लगा' बहुत से लोग उनके पास सुनने जाते और सुनकर दयाधर्म की प्ररूपणा करते।
उस समय हटवारिणया के वरिणक् शाह नागजी १, मोतीचन्दजी २, दुलीचन्दजी ३, शम्भुजी ४, और शम्भुजी के बेटा की बेटी मोहीबाई और मोहीबाई की माता इन सब ने मिलकर संघ निकाला। घाड़ो, गोड़े, ऊंट, बैल, इत्यादि साज सामान के साथ निकले परन्तु मार्ग में जलवृष्टि हो गई, जहां लौका महेता अपने मत का उपदेश करता था वहां यात्रिक पाए और लौंका की वाणो सुनने लगे । लौका महेता भी बड़ी तत्परता से दयाधर्म का प्रतिपादन करते थे । सारा यात्री संघ लुका महेता वाले गांव में आया और वहां पड़ाव डालकर महेता की वाणी सुनने लगा, उस समय संघ के गुरु वेशधारी साधु ने सोचा - अगर संघ के लोग सिद्धान्त शैली सुनेंगे तो आगे चलेंगे नहीं और हमारी बात भी मानेंगे नहीं, यह विचार कर वेशधारी साधु संघनायक के पास पाया और कहने लगा - संघ के लोग खर्च और पानी से दु:खी हैं, तब संघनायक ने कहा - मार्ग में तो त्रसजीव और
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