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चतुर्थ परिच्छेद ]
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देवगिरिण क्षमा श्रमरण का नाम लिखकर उन्हें २७वां पट्टधर मान लिया है । वास्तव में देवगिरिण क्षमा-श्रमण की गुरु-परम्परा गिनने से उनका नम्बर ३४वां प्राता है, जबकि देवगिरिण क्षमा-श्रमरण २७ व पुरुष माने गये हैं, सो वाचक-परम्परा के क्रम से, न कि गुरु-शिष्य परम्परा-क्रम से । इस भेद को न समझने के कारण से ही प्रस्तुत पट्टावलीकार ने कल्पस्थविरावली के क्रम से देवद्विगरिएको २७वां पुरुष मानने की भूल की है ।
देवगण तक के नाम लिखकर पट्टावली लेखक कहता है - ये २७ पाट नन्दी सूत्र में मिलते हैं, "ये २७ पट्टधर जिनागा के अनुसार चलते थे, तब इनके बाद में पाट परम्परा द्रव्यलिंगियों की चली, फिर कालान्तर में श्रात्मार्थी साधु शुद्धमार्ग को चलायेंगे उनका अधिकार आगे कहते हैं ।"
लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि देवद्वगरिण के बाद जो साधु परम्परा चली वह मात्र वेषधारियों की परम्परा थी । भाव साधुनों की नहीं । यहां लेखक को पूछा जाय कि भावसाघु देवगिरिण के बाद नहीं रहे और सं० ० १७०९ से भगवान् के दयाधर्म का प्रचार स्थानकवासी साधुत्रों ने किया, तब देवगिरिण क्षमाश्रमरण के स्वर्गवास के बाद और स्थानकवासी साधुनों के प्रकट होने के पहले के १२०० वर्षों में भगवान् का दयाधर्म नहीं रहा था ? क्योंकि जैन शासन के चलाने वाले तो निर्ग्रन्थ भावसाधु ही होते थे । तुम्हारी मान्यता के अनुसार देवद्धि के बाद की श्रमणपरम्परा केवल लिंगधारियों की थी तब तो सं० १७०६ के पहले के १२०० वर्षों में जैन दयाधर्मं विच्छिन्न हो गया था, परन्तु भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने अपना धर्मशासन २१ हजार वर्षो तक अविच्छिन्न रूप से चलता रहने की बात कही है, अब भगवतीसूत्र का कथन सत्य माना जाय या प्रस्तुत स्थानकवासी पट्टावली के लेखक पूज्यजी का कथन ? समझदारों के लिए तो यह कहने की आवश्यकता ही नहीं है, कि वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थं आरे के अन्तिम भाग में भगवान् महावीर ने श्रमरणसंघ की स्थापना करने के साथ धर्म की जो स्थापना की है वह आज तक प्रविच्छिन्न रूप से चलती रही है और पंचम श्रारे के अन्त तक चलती रहेगी, चाहे स्थानकवासी सम्प्रदाय
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