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लकागाछ और स्थानकवासी
लौंकागच्छ के अनुयायी यति और गृहस्थ जब लौंका की मान्यताओं को छोड़ कर अन्य गच्छों के यतियों की मर्यादा के बिलकुल समीप पहुँच गए तब उनमें से कोई कोई यति क्रियोद्धार के नाम से अपने गुरुओं से जुदा होकर मुंह पर मुहपत्ति बांध कर जुदा फिरने लगे । इन क्रियोद्धारकों में पहला नाम “धर्मसिंहजी" का है, लौंकागच्छ वालों ने इनको कई कारणों से गच्छ बाहर कर दिया था। इस सम्बन्ध में नीचे लिखा दोहरा पढ़ने योग्य है -
"संवत् सोलह पंच्च्यसिए, अहमदाबाद मझार ।
शिवजी गुरु को छोड़ के. धर्मसिंह हुआ गच्छ बहार ॥"
क्रियोद्धारकों में दूसरे पुरुष यति लवजी थे जो लौंकागच्छीय यति बजरंगजी के शिष्य थे। गुरु के मना करने पर भी लवजी मुंह पर मुहपत्ति बांधकर उनसे अलग हो गये। धर्मसिंह और लवजी सूरत में मिले, दोनों क्रियोद्धारक थे, दोनों मुहपत्ति बांधते थे, पर छ:-कोटि पाठ-कोटि के बखेड़े के कारण ये दोनों एक दूसरे से सहमत नहीं हुए, इतना ही नहीं, वे एक दूसरे को जिनाज्ञाभंजक और मिथ्यात्वी तक कहते थे।
तीसरे क्रियोद्धारक का नाम था धर्मदासजी। ये धर्मसिंहजी तथा लवजी में से एक को भी नहीं मानते थे और स्वयं मुहपत्ति बांधकर क्रियो. द्धारक के रूप में फिरते थे। इन क्रियोद्धारकों से समाज और लौंकागच्छ को जो नुकसान हुआ है उसके सम्बन्ध में वाड़ीलाल मोतीलाल शाह का निम्नोद्धृत अभिप्राय पढ़ने योग्य है। शाह कहते हैं -
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