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तृतीय-परिच्छेद ]
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श्री जिनराज, (६०) श्री जिनभद्र, (६१) श्री जिनचन्द्र, (६२) श्री जिनसमुद्र, (६३) श्री जिनहंस, (६४) श्री जिनमारिणक्य, (६५) थी जिनचन्द्र, (६६) श्री जिनहंस, (६७) श्री जिनराज, (६८) श्री जिनरत्न, (६९) श्री जिनचन्द्र, (७०) श्री जिनसुख, (७१) श्री जिनभक्ति, (७२) श्री जिनलाभ, (७३) श्री जिनचन्द्रसूरि । इस प्रकार ये पिछले सभी नाम खरतर पट्टावली के अनुसार हैं। जिनचन्द्र के समय में यह पाना लिखा गया है।
इस पत्र के अन्त में खरतरगच्छ की शाखामों तथा अन्यगच्छ-मतों के प्रकट होने का समय-निर्देश नीचे लिखे अनुसार किया है।
१. सं० १२०४ में जिनशेखराचार्य से "रुद्रपल्लीय" खरतर शाखा निकली।
२. सं० १२०५ में श्री जिनदत्तसूरि के समय "मधुकर" खरतर शाखा निकली।
३, सं० १२२२ में जिनेश्वरसूरि द्वारा "वेगड" खरतर शाखा निकली।
४. सं० १४६१ के वर्ष में श्री वर्धमानसूरिजी ने "पीप्पलीया" खरतरगच्छ की शाखा का प्ररूपण किया।
५. सं० १५६० में श्री शान्तिसागराचार्य ने "प्राचार्या" नामक नयी खरतरगच्छ की शाखा निकाली।
६. श्री जिनसागरसरिजी ने सं० १६८७ में "लघु आचार्य' नामक खरतरगच्छ में एक नयी शाखा चलाई।
७. सं० १३३१ में श्री जिनसिंहसूरि एवं जिनप्रभसूरि ने "लघु खरतरगण" नाम से अपने गच्छ को प्रसिद्ध किया।
८. सं० १६१२ में भावहर्षगणि ने अपने नाम से खरतरगच्छ में "भावहर्षीया' शाखा निकाली।
है. सं० १६७५ में श्री रंगविजयसूरि ने "रंगविजया" शाखा निकाली।
१०. १६७५ वर्ष खरतरगच्छ में श्री सारजी से "श्री सांरगच्छ' नामक भेद पड़ा।
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