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[ पट्टावली-पराग
सं० १२३६ (१२२६ ) में प्राचार्य हेमसूरि त्रिकोटी ग्रन्थों के
३८० ]
कर्त्ता हुए ।
सं० १२८५ में तपागच्छ की उत्पत्ति हुई ।
सं० १९५६ में पूर्णमीयागच्छ निकला ।
सं० १२१४ में प्रांचलीयागच्छ निकला ।
सं० १३३३ ( अन्यत्र १२५० ) में श्रागमिकगच्छ निकला ।
सं० १५०८ में अहमदाबाद में लुकाशाह नामक पुस्तक लेखक ने ' प्रतिमोत्थापक" मत निकाला और लखमसी से भेंट हुई ।
सं० १५२४ में लंकागच्छ की उत्पत्ति हुई ।
उपसंहार :
इतिहास साधन होने के कारण हमने तपागच्छ, खरतरगच्छ, श्रच गच्छ आदि की यथोपलब्ध सभी पट्टावलियों तथा गुर्वावलियां पढ़ी हैं और इससे हमारे मन पर जो असर पड़ा है उसको व्यक्त करके इस लेख को पूरा कर देगे ।
वर्तमानकाल में खरतरगच्छ तथा श्रांचलगच्छ की जितनी भी पट्टाबलियां हैं, उनमें से अधिकांश पर कुलगुरुयों की बहियों का प्रभाव है, विक्रम की दशवीं शती तक जैन श्रमरणों में शिथिलाचारी साधुयों को संख्या इतनी बढ़ गई थी कि उनके मुकाबले में सुविहित साधु बहुत ही कम रह गये थे । शिथिलाचारियों ने अपने अड्डे एक ही स्थान पर नहीं जमाये थे, उनके बड़ेरे जहां-जहां फिरे थे, जहां-जहां के गृहस्थों को अपना भाविक बनाया था, उन सभी स्थानों में शिथिलाचारियों के अड्डे जमे हुए थे, जहां उनकी पौषधशालाएं नहीं थीं वहां अपने अड्डों से अपने गुरु- प्रगुरुनों के भाविकों को सम्हालने के लिये जाया करते थे, जिससे कि उनके पूर्वजों के भक्तों के साथ उनका परिचय बना रहे, गृहस्थ भी इससे खुश रहते थे कि हमारे कुलगुरु हमारी सम्हाल लेते हैं, उनके यहां कोई भी धार्मिक कार्य प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, संघ आदि का प्रसंग होता, तब वे अपने कुलगुरुयों को आमन्त्रण करते और
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