________________
तृतीय-परिच्छेद ]
[ ३८१
धार्मिक विधान उन्हीं के हाथ से करवाते, धीरे-धीरे वे कुलगुरु परिग्रहधारी हुए: वस्त्र, पात्र के अतिरिक्त द्रव्य की भेंट भी स्वीकारने लगे, तबसे कोई गृहस्थ अपने कुलगुरु को न बुलाकर दूसरे गच्छ के प्राचार्य को बुला लेता और प्रतिष्ठादि कार्य उनसे करवा लेता तो उनका कुलगुरु बना हुआ प्राचार्य कार्य करने वाले अन्य गच्छीय प्राचार्य से झगड़ा करता। इस परिस्थिति को रोकने के लिए कुलगुरुषों ने विक्रम को १२ वीं शताब्दी से अपने-अपने श्रावकों के लिए अपने पास रखने शुरू किये, किस गांव में कौन-कौन गृहस्थ अपना मथवा अपने पूर्वजों का मानने वाला है उनकी सूचियां बनाकर अपने पास रखने लगे और अमुक-अमुक समय के बाद उन सभी श्रावकों के पास जाकर उनके पूर्वजों की नामावलियां सुनाते और उनकी कारकीदियों की प्रशंसा करते, तुम्हारे बड़ेरों को हमारे पूर्वज अमुक प्राचार्य महाराज ने जैन बनाया था, उन्होंने अमुक २ धार्मिक कार्य किये थे इत्यादि बातों से उन गृहस्थों को राजी करके दक्षिणा प्राप्त करते । यह पद्धति प्रारम्भ होने के बाद वे शिथिल साधु धीरे-धीरे साधुधर्म से पतित हो गए और "कुलगुरु" तथा 'बही वंचों" के नाम से पहिचाने जाने लगे । आज पर्यन्त ये कुलगुरु
जैन जातियों में बने रहे हैं, परन्तु विक्रम की बीसवीं सदी से वे लगभग सभी गृहस्थ बन गए हैं, फिर भी कतिपय वर्षों के बाद अपने पूर्वज-प्रतिबोधित श्रावकों को वन्दाने के लिए जाते हैं, बहियां सुनाते हैं और भेट पूजा लेकर पाते हैं, इस प्रकार के कुलगुरुषों की अनेक बहियां हमने देखी और पढ़ी हैं उनमें बारहवीं शती के पूर्व की जितनी भी बातें लिखी गई हैं वे लगभग सभी दन्तकथामात्र हैं, इतिहास से उनका कोई सम्बन्ध नहीं, गोत्रों और कुलों को बहियां लिखी जाने के बाद की हकीकतों में आंशिक तथ्य अवश्य देखा गया है, परन्तु अमुक हमारे पूर्वज प्राचार्य ने तुम्हारे अमुक पूर्वज को जैन बनाया था और उसका अमुक गोत्र स्थापित किया था, इन बातों में कोई तथ्य नहीं होता, गोत्र किसी के बनाने से नहीं बनते, आजकल के गोत्र उनके बड़ेरों के धन्धों रोजगारों के ऊपर से प्रचलित हुए हैं, जिन्हें हम "अटक" कह सकते हैं । खरतरगच्छ की पट्टावलियों में अनेक आचार्यों के वर्णन में लिखा मिलता है कि अमुक को मापने जैन बनाया और उसका यह गोत्र कायम किया, अमुक आचार्य ने इतने लाख और इतने हजार अजैनों
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org