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[ पट्टावली-पराग
को जैन बनाया, इस कथन का सार मात्र इतना ही होता है कि उन्होंने अपने उपदेश से अमुक गच्छ में से अपने सम्प्रदाय में इतने मनुष्य सम्मिलित किए। इसके अतिरिक्त इस प्रकार की बातों में कोई सत्यता नहीं होती, लगभग आठवीं नवमीं शताब्दी से भारत में जातिवाद का किला बन जाने से जैन समाज की संख्या बढ़ने के बदले घटती ही गई है । इक्का दुक्का कोई मनुष्य जैन बना होगा तो जातियों की जातियां जैन समाज से निकलकर अन्य धार्मिक सम्प्रदायों में चली गई हैं, इसी से तो करोड़ों से घटकर जैन समाज की संख्या आज लाखों में आ पहुँची है । ऐतिहासिक परिस्थिति उक्त प्रकार की होने पर भी बहुतेरे पट्टावलीलेखक अपने अन्य प्राचार्यों की महिमा बढ़ाने के लिए हजारों और लाखों मनुष्यों को नये जैन बनाने का जो ढिढोरा पीटे जाते हैं इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, इसलिए ऐतिहासिक लेखों प्रबन्धों और पट्टावलियों में इस प्रकार की प्रतिशयोक्तियों और कल्पित कहानियों को स्थान नहीं देना चाहिए ।
हमने तपागच्छ की छोटी बड़ी पवीस पट्टावलियां पढ़ी हैं मौर इतिहास की कसौटी पर उनको कसा है, हमको अनुभव हुआ कि अन्यान्य गच्छों की पट्टावलियों की अपेक्षा से तपागच्छ की पट्टाबलियों में प्रतिशयोक्तियों और कल्पित कथानों की मात्रा सब से कम है और ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि कच्ची नींव पर जो इमारत खड़ी को जाती है, उसकी उम्र बहुत कम होती है । हमारे जैन संघ में कई गच्छ निकले और नामशेष हुए, इसका कारण यही है कि उनकी नींव कच्ची थी, आज के जैन समाज में तपागच्छ, खरतरगच्छ, प्रांचलगच्छ आदि कतिपय गच्छों में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकात्मक चतुविध जैन संघ का प्रास्तित्व है, इसका कारण भी यही है कि इनमें वास्तविक सत्यता है । जो भी सम्प्रदाय वास्तविक सत्यता पर प्रतिष्ठित नहीं होते, वे चिरजीवी भी नहीं होते, यह बात इतिहास और अनुभव से जानी जा सकती है ।
॥ इति खरतरगच्छीय पट्टावली संग्रह ॥
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