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तृतीय-परिच्छेद ]
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गए और वहां से सुविहित साधुओं के साथ विहार करते हुए, प्रतिमोत्थापक मत का खण्डन करते हुए, अपनो सामाचारो को दृढ़ करते हुए गुजरात को तरफ गए । अहमदाबाद में शिवा, सोमजी नाम के दो भाइयों को प्रतिवोध करके धनवन्त किए, लाहोर जाकर अकबर को प्रतिबोध करके सब देशों में फर्मान भिजवाकर अट्ठाई के दिनों में अमारि का पालन करवाया, सं० १६५२ में पांच नदियों का साधन किया, जहां ५ पीर मरिणभद्रयक्ष, खोडिया क्षेत्रपालादि देव शामिल थे, सं० १६७० में बेणातट पर आपका स्वर्गवास हुआ, इनके समय में सं० १६२१ में भावहर्षोपाध्याय से "भावहर्षीय खरतर शाखा" निकलो। यह सातवां गच्छभेद हुआ। (६१) श्री जिनसिहसूरि
सं० १६२३ में दीक्षा, १६४६ के फल्गुन शुक्ल २ को लाहोर में प्राचार्य-पद और सं० १६७० में बेनातट पर सूरि-पद, १६७४ में मेड़ता में स्वर्गवास । (६२) श्री जिनराजमूरि --
सं० १६५६ में दीक्षा, १६७४ में मेड़ता में सूरि-पद, इनके द्वितीय शिष्य सिद्धसेन गरिण को प्राचार्य पद देकर जिनसागरसूरि नाम रक्खा, १२ वर्ष तक आप इनकी आज्ञा में रहे, फिर समयसुन्दरोपाध्याय के शिष्य हर्षनन्दन के कदाग्रह से २०१६८६ में प्राचार्य जिनसागरसूरि से 'लध्वाचार्य" खरतर शाखा निकली, यह अष्टम गच्छ भेद हुअा। जिनराजसूरि ने नैषधीय काव्य पर "जैनराजी" नामक टीका बनाई, सं० १६६६ में आप स्वर्गवासी हुए । लगभग उसी समय १७०० में पं० रंगविजयजी गरिण से "रंगविजया" शाखा निकलो यह नवंमा गच्छभेद हुआ और इस शाखा में से श्रीसार उपाध्याय ने "श्रीसारीय खरतर शाखा' निकाली, यह दशवां गच्छभेद हुआ । ग्यारहवां सुविहित मूल खरतरगच्छ का भेद कायम रहा इस तरह ११ भेद पड़े। (६३) श्री जिनरत्नमरि -
सं १६९६ में श्री जिन राजसूरिजी ने सूरिमन्त्र दिया। सं० १७११ में जिनरत्नसूरि अकबराबाद में स्वर्गवासी हुए।
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