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तृतीय-परिच्छेद ]
[ ३७१ (५१) जिनलब्धिसूरि -
श्री तरुणप्रभाचार्य द्वारा प्राचार्य-पद, सं० १४०६ में स्वर्गवास । (५२) श्री जिनचन्द्रसरि -
इनको सं० १४०६ में तरुणप्रभाचार्य द्वारा सूरि-मन्त्र मिला और १४१५ में स्वर्गवास। (५३) जिनोदयसरि -
सं० १३७५ में जन्म, १४१५ में आषाढ़ शु० २ को तरुणप्रभाचार्य द्वारा पद स्थापना और सं० १४३२ में पाटण में स्वर्गवास, इनके समय में १४२२ में "वेगडखरतरशाखा" निकली । यह चतुर्थ गच्छ भेद हुमा । (५४) श्री जिनराजसरि -
स. १४३२ में पाटण में प्राचार्य-पद हुआ, स्वर्णप्रभाचार्य, श्री भुवनरत्नाचार्य और सागरचद्राचार्य को आचार्य बनाया। सं० १४६१ में देलवाड़ा में स्वर्गवास । (५५) श्री जिनमद्रसरि
सं० १४६१ में सागरचन्द्राचार्य ने श्री जिनराजसूरि के पट्ट पर श्री जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, उन्होंने जैसलमेर के श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ के पास में स्थापित क्षेत्रपाल की मूर्ति को गर्भगृह के बाहर ले जाकर स्थापित किया, इससे कुपित क्षेत्रपाल ने उनमें चतुर्थव्रत भंग का दोष बताया, जिससे इनके भक्त नाराज हो गये। सं० १५१४ में श्री जिनभद्रसूरि का कुम्भलमेर में स्वर्गवास । इनके समय में १४७४ में श्री जिनवर्द्धनसूरि से 'पिप्पलक' नाम की "खरतर शाखा निकली," यह पांचवां गच्छ भेद हुमा। (५६) श्री जिनचन्द्रसरि - ___ सं० १४९२ में दीक्षा, १५१४ में कीतिरत्नाचार्य द्वारा पद स्थापना मौर आबु ऊपर नवफरणा पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा को। धर्मरत्नसूरि, गुण
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