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[ पट्टवलो-पराग
___ उपर्युक्त तीन गाथानों में सार्द्धशतककार श्री जिनदत्तसूरिजी ने चैत्य वासियों के साथ जिनेश्वरसूरिजी का शास्त्रार्थ होने और वसतिवास का प्रमाणित होना बड़ी खूबी के साथ बताया है, परन्तु राजा की तरफ से जिनेश्वरसूरिजी को "खरतर विरुद" मिलने का सूचन तक नहीं है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिनदत्तसूरिजी के "गणधर साद्धं शतक" का निर्माण हुमा तब तक "खरतर" नाम व्यवहार में पाया नहीं था, अन्यथा जिनदत्तसूरिजी इसकी सूचना किये विना नहीं रहते। हरिभद्रसूरिजी के सम्बन्ध में उनके चैत्यवासी होने की दन्तकथा का खण्डन करने के लिए आप तैयार हो गए हैं तो जिनेश्वरसूरि को राजसभा में "खरतर विरुद" मिलने की वे चर्चा न करें, यह बात मानने काबिल नहीं है।
जिनेश्वर सूरिजी के बाद “सार्द्धशतक" में श्री जिन चन्द्रसूरिजी का नम्वर आता है, जिनचन्द्रसूरि द्वारा अठारह हजार श्लोकी परिमारण "संवेगरंगशाला" कथा बनाने का निर्देश किया है, फिर अभयदेवसूरि का वर्णन दिया है और जिनवल्लभ गरिण के आने, अभयदेवसूरि के पास सिद्धान्त पढ़ने और अपने पूर्व गुरु जिनेश्वराचार्य से मिलकर फिर अभयदेवसूरि के पास पाकर उनसे उपसम्पदा लेने की बात कही है।
प्राचार्य श्री अभयदेवसूरिजी ने अपने पट्ट पर श्री वर्धमानसरि को बैठ ने की बात भी लघुवृत्तिकार ने लिखी है, बाको जिनदत्तसूरिजी ने "सार्द्धशतक'' में अपने परिचित और उपकारक प्राचार्यों, उपाध्यायों की प्रशंसा करके :"सार्द्धशतक" की १०० गाथाएं पूरी की हैं - इसके बाद की ५० गाथाएं लेखक ने अपने अनुयायियों की चैत्यवासियों से रक्षा करने तथा चैत्यवासियों के खण्डन में पूरी की हैं ।
हमने "गणधर साद्धं शतक" को खरतर पट्टावली का नाम इसलिए दिया है कि इसका लगभग प्राधा भाग खरतर-गच्छ के मान्य पुरुषों की
१ "गणधर सार्द्धशतक" टीकाकार श्री सर्वराजगरिण ने "संवेगरंगशाला" का श्लोक
परिमाण अठारह हजार लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता। "संवेगरंगशाला" का श्लोक-परिमाण १० हजार ७५ श्लोक है ।
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