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[ पट्टावलो-पराग
की है, फिर प्रार्य स्थूलभद्र की प्रशंसा की पांच गाथाएं लिखी हैं और उनके शिष्यद्वय आर्य महागिरि तथा सुहस्तीसूरि को दो गाथाओं में याद कर आर्य समुद्र, आर्य मंगु और आर्य धर्म नामक तीन युगप्रधानों को एक गाथा से नमस्कार किया है, फिर एक गाथा से युगप्रधान श्री भद्रगुप्त को वन्दन करके साढ़े चौदह गाथाओं में वज्रस्वामी का वृत्तान्त लिखा है और इसके बाद अक्रमप्राप्त युगप्रधान श्री आर्य रक्षितजी की दश (१०) गाथानों में स्तवना की है। इसके उपरान्त दो गाथाओं से सामान्य युगप्रधानों का शरण स्वीकार करके दो गाथाओं से श्री उमास्वाति वाचक को वन्दन कर पाठ गाथाओं में याकिनी महत्तरा धर्मपुत्र श्री हरिभद्रसूरि की प्रशंसा की है । हरिभद्र के सम्बन्ध में उस समय तक दन्तकथा प्रचलित थी कि वे चैत्यवासी आचार्यों द्वारा दीक्षित और शिक्षित हुए थे। इस दन्तकथा का आपने निम्नलिखित गाथा से खण्डन किया है- वह गाथा यह है -
"जंपइ केई समनाम - भोलिया भोलियाई जंपंति ।
चीवासी दिक्खिनो सिक्खिनो य गोयाण तं न मयं ॥"
उपर्युक्त गाथा में प्राचार्य कहते हैं - नामसाम्य की भ्रान्ति में पड़ कर कई भोले विद्वान् असत्य कहते हैं कि हरिभद्रसूरि चैत्यवासियों में दीक्षित हुए थे और उन्हीं के पास शिक्षित हुए थे, परन्तु यह कथन गीतार्थसम्मत नहीं है।
हरिभद्रसूरि के सम्बन्ध में प्राचार्य जिनदत्तसूरिजी कहते हैं- हरिभद्रसूरि जिनभटसूरि के शिष्य थे और युगप्रधान जिनदत्तप्रभु के पास सूत्रार्थ का अनुयोग लेने वाले थे। ग्रन्थकार के उक्त कथन से हमारा मतभेद है, क्योंकि माचार्य हरिभद्रसूरिजी स्वयं अपने आपको जिनदत्तसूरि का शिष्य और जिनभटसूरि का प्राज्ञाकारी लिखते हैं, इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि हरिभद्रसूरि के दीक्षा-गुरु जिनदत्तसूरि थे और वे जिनभटसूरि को माज्ञा में रहते थे।
यहां पर लघुवृत्तिकार ने हरिभद्रसूरिजी को चतुर्दशशत प्रकरणकार लिखा है और उनके प्रकरणों तथा कतिपय टीकाग्रन्थों का नामनिर्देश किया है, जो इस प्रकार है -
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