________________
तृतीय-परिच्छेद ]
[ ३५५
जिनदत्तसूरि और इनके अनुयायो विरोधियों को "कोमल' इस नाम से सम्बोधित करते थे, पागे जाते गच्छ वाले किसी न किसी गच्छ के नाम से अपनी परम्परा को प्रसिद्ध करने लगे, तब जिनात्तसूरि तथा जिनकुशलसूरि के अनुयायियों ने भी अपने नाम के साथ 'खरतर" शब्द का :'गच्छ' के अर्थ में प्रयोग करना प्रारम्भ किया और पन्द्रहवीं शती के प्रारम्भ तक उसका पर्याप्त प्रचार हो गया।
__ "सार्द्धशतक' की लघुवृत्त में जिनेश्वर सूरि का चैत्यवासियों के साथ विवाद होने का विवरण दिया गया है, किन्तु दुर्लभराज द्वारा खरतर विरुद प्राप्त होने का सूचन तक नहीं दिया गया, इससे प्रमाणित होता है कि वाचक सर्वराज गणि के समय तक "खरतरगच्छ'' यह नाम गच्छ के अर्थ में प्रचलित नहीं हरा था। लघुव त्त के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण देने के बाद अब हम "गणधर सार्द्धशतक' के निरू.एग के सम्बन्ध में विचार करेंगे।
"गणधर सार्द्धशतक'' नाम के अनुसार १५० गाथाओं का एक प्राकृतभाषामय प्रकरण है। इसके कर्ता प्राचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी हैं। आपने यह प्रकरण प्राचार्य पद प्राप्त होने के बाद तुरन्त बनाया मालूम होता है। यही कारण है कि प्रकरण के अन्त में "जिनदत्त' और "सोमचन्द्र'' इन दोनों नामों का निर्देश किया है। कुछ भी हो, परन्तु इतना तो निश्चित है कि यह 'सार्द्धशतक' आपने पूर्वाचार्यो की स्तुति के रूप में निर्मित किया है न कि परम्पराप्रतिपादन के भाव से । यही कारण है कि इसमें परम्परा का हिसाब न रख कर सभी प्रसिद्ध श्रुतधरों को स्तुति की है, जिसका सक्षिप्त सार नीचे दिया जाता है :
प्रारम्भ में ऋषभदेव तीर्थङ्कर के प्रथम गणधर ऋषभसेन से लगा कर अजितादि चौबोस तीर्थङ्करों के गणधरों की स्मृति में ५ गाथाएं लिखी हैं, फिर दो गाथाओं में महावीर के पंचम गणधर सुधर्मा की स्तुति की है । सुधर्मा के बाद जम्बू स्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यम्भवसूर, यशोभद्रसूरि, सम्भूतविजयसूरि और भद्रबाहु स्वामी की क्रमशः सात गाथानों में स्तवना
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org