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तृतीय-परिच्छेद 1
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सं० १३८२ के वैशाख सुदि ५ को सा० वीरदेव ने वहां नन्दिमहोत्सव किया और श्रीपूज्यजी ने उसमें चार क्षुल्लक, २ क्षुल्लिकानों को दीक्षा दो, जिनके नाम विनयप्रभ, हरिप्रभ, सोमप्रभ आदि और कमलश्री तथा ललितश्री, इसके बाद श्रीपूज्य सांचोर पहुँचे।।
एक मास सांचोर ठहर कर आगे लाटहद (राडदरा) गए। वहां पर १५ दिन ठहर कर आगे बाडमेर गए और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया।
सं० १३८३ के पौष शुक्ल पूर्णिमा को वाडमेर में अट्टाहिमहोत्सव हुया और उसमें नव-दीक्षितों की उपस्थापना, मालारोपणादि उत्सव हुए। उसी वर्ष में बाडमेर से विहार कर लवणखेट (पचपदरा) सिवाना होते हुए जालोर पहुँचे और वहां पर अट्ठाही-महोत्सव शुरु हुग्रा, जिसमें १३८३ के फाल्गुन वदि ६ को श्री जिनकुशलसूरिजी ने प्रतिष्ठा, व्रतग्रहण, उपस्थापना, मालारोपणादि कार्य कराये और उस उत्सव में वैभारगिरि
होने की आज्ञा क्यों देंगे ? राजनीति तो साधु, नट, नर्तक आदि घुमक्कड जातियों को वर्षाकाल में एक स्थान में रहने की आज्ञा देती है, तब खरतरगच्छ के आचार्यों को वह वषीकाल में घूमने की आज्ञा क्यों देगी। युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसरिजी वर्षाकाल में बादशाह अकबर के पास जाने को रवाना हुए और जालोर तक पहुंचने के बाद उनको बादशाह की तरफ से समाचार पहुंचे कि वर्षाकाल में चलते हए पाने की कोई आवश्यकता नहीं है, तब आपने शेष वर्षाकाल जालोर में बिताया, जहां तक हम समझ पाये हैं श्री जिन् दत्त मूरिजी से ही खरतरगच्छ के अनुयायियों को गुरुपारतन्त्र्य का उपदेश मिलना प्रारम्भ हो गया था, उसके ही परिणाम स्वरूप खरतरगच्छ में यह बात एक सिद्धात बन गया है कि आगम से प्राचार्यपरम्परा अधिक बलवती है, किसो प्रसंग पर आचरणा के विपरीत पागम की बात होगी तो आगमिक नियम को छोड़कर आचरणा की बात को प्रमाण माना जायगा, शास्त्र बिरुद्ध यात्रार्थभ्रमण और वर्षाकाल तक की उपेक्षा करना उसका कारण एक ही है कि वे इस प्रकार की प्रवृत्तियों के विरुद्ध कुछ भी कह नहीं सकते थे, ठीक है, गुरु पारतन्त्र्य में रहना चाहिए, परन्तु पारतन्त्र्य का अर्थ यह तो नहीं होना चाहिए कि शास्त्रविरुद्ध अथवा लोकविरुद्ध, प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी गुरुत्रों को कुछ नहीं कहा जाय, अांखें मुन्दकर गुरुओं की प्रवृत्तियों को निभाने का परिणाम यह होगा कि धीरे-धीरे गुरु और गच्छ दुनिया से विदा हो चलेंगे।
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