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[ पट्टावलो-पराग
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श्रो जिनबल्लभ गणि की पीठ थपेड़ कर उन्हें पाटन में संघ बाहर करवाया और जिनदत्तसूरि को भी उकसा कर जिलेश्वरसुरिजी के शिष्य-मंडल ने उन्हें पाटन से मारवाड़ की तरफ विहार करवाया, जिनवल्लभ गरिण ने पाटन से मेवाड़ की तरफ विहार करने के बाद, अपनो वाणी की उग्रता पर कुछ अंकुश डाल दिया था, जो उनके बाद के बने हुए "कुलकों" पर से जाना जाता है, परन्तु जिनदत्तसूरि की उग्रता अन्त तक बनी रही, ऐसा "चर्चरी," "उपदेशरसायनरास,” "कालस्वरूप कुलक” तथा “गणधर सार्द्धशतक उत्तरार्ध को ७५ गाथाए" पढ़ने से जाना जाता है । अनेक विद्वानों का कहना है कि "जिनवल्लभ के निरंकुश भाषणों से पाटण गुजरात में उन्हें संघ से बहिष्कृत होकर गुजरात छोड़ना पड़ा था,"-इस कथन में सत्यांश अवश्य है, अपने "संघरट्टक" में जिनवल्लभ गरिण ने तत्कालीन जैन संघ पर जो वचन-प्रहार किये हैं. वे इनके सघबहिष्कृत होने के बाद के वचन हैं, बाकी उन्होंने चैत्यवासियों की कतिपय अयोग्य प्रवृत्तियों का और उनके शिथिलाचार का खण्डन अवश्य किया है । "विधिचैत्यादि" कतिपय बातें जिनवल्लभ गरिण पर थोपी जाती हैं, परन्तु वास्तव में ये अधिकांश बातें "जिनदत्तसूरिजी' इनके बाद के प्राचार्य "जिनपतिसूरिजी' तथा "तरुणप्रभसूरिजी" प्रादि की चलाई हुई हैं, वास्तव में जिनवल्लभ गरिण के समय में इन बातों की चर्चा तक नहीं चली थी। जिनवल्लभ गणि विद्वान् थे, और जिनेश्वरसूरि के कतिपय शिष्यों के उकसाने से वे चैत्यवासियों के खण्डन में अगुअां बने थे, परन्तु जब पाटण का पूरा संघ उनके विरुद्ध हुआ और संघ बाहर का प्रस्ताव पास किया, तब से उन्हें अकेला मारवाड़, मेवाड़ की तरफ फिरना पड़ा, उकसाने वाले तो क्या, उनका गुरुभाई जिनशेखर तक संघ बाहर होने के भय से साथ में नहीं गया , प्राचार्य देवभद्र आदि कतिपय साधुनों को जिनवल्लभ गणि की तरफ पूरी सहानुभूति थी और इस सहानुभूति को चरितार्थ करने के लिए जिनवल्लभगणिजी को प्राचार्य-पद तक देना चाहते थे, परन्तु पाटण में जो इनके संघ बाहर का प्रस्ताव हुअा था, उसके साथ यह भी प्रकट कर दिया था कि जो कोई जिनवल्लभ गरिण के साथ सम्बन्ध रखेगा उसे भी संघ बाहर समझा जायगा, इस संघ बाहर के हथियार से डरकर वर्षों तक आचार्य देवभद्र और उनकी
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