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[ पट्टावली-पराग
के मनुष्य भगवान् श्री पार्श्वनाथ की पाराधना, स्नात्र पूजा प्रादि धर्मकृत्यों में तत्पर हो जानो। श्रीपूज्य के उपदेशानुसार संघ धर्म में उद्यत हो गया। सुखपूर्वक १४ दिन बीत गये, पर वहां से कोई निकल नहीं सका, उधर अभयड का भेजा हुआ मनुष्य लश्कर में जा पहुंचा और अपने स्वामी प्रभयड की विज्ञप्ति जगद्देव के चरणों में रक्खी। पारिग्रहिक ने लेख पढ़ा और तुरन्त जगदेव ने अपने पारिग्राहक के हाथ से राजादेश लिखवाया और उसके साथ मनुष्य को वापिस भेज दिया । राजादेश दण्डनायक के हाथ पहुंचा और पढ़कर तुरन्त संघ को हिरासत से मुक्त किया।
वहां से संघ अपहिल-पाटण पहुँचा। पाटन में श्रीपूज्य ने अपने गोत्रीय ४० प्राचार्यो को अपनी भोजन-मण्डली में भोजन करवाया और वस्त्रदान पूर्वक सन्मान किया।
- वहां से संघ के साथ श्री पूज्य चलते हुए लबरगखेट पहुंचे। वहां पूर्णदेव गरिण, मानचन्द्र गणि, गुणभद्र गरिण को वाचनाचार्य पद दिया।
सं० १२४५ के फाल्गुन में पुष्करिणी में धर्मदेव, कुलचन्द्र, सहदेव, सोमप्रभ, सूरप्रभ, कीर्तिचन्द्र, श्रीप्रभ, सिद्धसेन, रामदेव और चन्द्रप्रभ को तथा संयमश्री, शान्तमति और रत्नमति को दीक्षा दी।
सं० १२४६ में पाटन में श्री महावीर की प्रतिमा स्थापन की। सं० १२४८ में जिनहित को लवणखेट में उपाध्याय-पद दिया। सं० १२४६ में पुष्करिणी में मलयचन्द्र को दीक्षा दी।
सं० १२५० में विक्रमपुर में प्रद्मप्रभ साधु को प्राचार्य-पद दिया मोर 'श्री सर्वदेवसूरि' यह नाम रक्खा ।
सं० १२५१ मंडोवर में लक्ष्मीधर आदि अनेक श्रावकों को मालारोपावि किया। वहां से अजमेर गए । अजमेर में उन दिनों म्लेच्छों का उपद्रव था, दो मास बड़े कष्ट से निकाले । वहां से वतन पाकर भीमपल्ली
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