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[ पट्टावली-पराग
और पं० मुनिचन्द्र गरिण को वाचनाचार्य-पद प्रदान किया, उसी वर्ष में विवेक समुद्रोपाध्याय का प्रायुष्य समाप्त होता जानकर भीमपल्ली से श्रीपूज्य पाटन गए और ज्येष्ठ वद १४ के दिन विवेकसमुद्रोपाध्याय को चतुर्विध संघ के साथ मिथ्यादुष्कृत कराके अनशन दिया, उपाध्यायजी पंचपरमेष्ठो नमस्कार मन्त्र का स्मरण करते हुए समाधि पूर्वक ज्येष्ठ शुदि २ को स्वर्गवासी हुए ।
उसके बाद श्रीपूज्य ने विधि-समुदाय को उपदेश देकर श्री विवेकसमुद्र उपाध्याय के शरीर-संस्कार भूमि में स्तूप करवाया और प्राषाढ़ शुक्ल १३ को उस पर वासक्षेप किया, बाद में पाटन के समुदाय की प्रार्थना से पाटन में द्वितीय चातुर्मास्य किया ।
. सं० १३७६ के मार्गशीर्ष वदि ५ को पाटन में विधिचैत्य में प्रतिष्ठा-महोत्सव कराया और उसी दिन सा० खीमड श्रावक के उद्यम से और सा• तेजपालादि विधि-समुदाय की तरफ से शत्रुजय तीर्थ पर श्री युगादिदेव के विधिचैत्य का प्रारम्भ किया गया, पाटन के इस महोत्सव में श्री शान्तिनाथ प्रमुख के शैलमय, रत्नमय, पित्तलमय १५० जिनबिम्बों की, दो समवसरणों को, श्री जिजचन्द्रसूरि, जिनरत्नसूरि और अधिष्ठायकों की मूर्तियों की श्रीपूज्य ने प्रतिष्ठा की ।
__ बाद में श्री वीजापुर के संघ की प्रार्थना से श्रीपूज्य वीजापुर पधारे पोर वीजापुर से वहां के समुदाय के साथ त्रिशुगम पधारे, त्रिशुगम से वीजापुर के तथा वहां के समुदाय के साथ आरासरण तथा तारंगातीर्थ की यात्रा कर श्री जिनकुशलसूरिजो पाटन पहुंचे और तीसरा चातुर्मास्य वहां किया ।
सं० १३८० कार्तिक शुक्ल १४ को सा. तेजपाल श्रावक ने शत्रुजय तीर्थ पर तैयार होने वाले विधि-चैत्य योग्य श्री युगादिदेव का २७ अंगुल परिमाण जिनबिम्ब जो तैयार करवाया था, उसकी प्रतिष्ठा की, अन्य भी अनेक शैलमय, पित्तलमय बिम्बों तथा जिनप्रबोधसूरि
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