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३४ सम्मतिसूरि -
३५ इन्द्रदेवसूरि ३६ भट्टस्वामी ३७ जिनप्रभाचायं -
३८ मानदेवाचार्य -
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[ पट्टावली-पराग
उस समय अनेक मतभेदों का उद्भव हुआ, सामाचारियां भी भिन्न-भिन्न बनी और अनेक ग्रन्थों का निर्माण हुआ । आर्य सुहस्ती की परम्परा में साधु शिथिलाचारी और चत्यवासी हो गए थे श्रौर उनका प्राबल्य बहुत बढ़ गया था । सुधर्मा गणधर की खरी परम्परा को पालने वाले बहुत ही कम रह गये थे । उस समय सन्मतिसरि विचरते हुए भीनमाल नगर गए, वहां पर सोमदेव के पुत्र इन्द्रदेव को प्रतिबोध देकर संयम दिया | वह विद्या का पारंगत हुआ, सन्मतिस रि विक्रम सं० ६७० के वर्ष देवलोक प्राप्त हुए
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। इसलिये लोग
इन्होंने कोरण्टक गांव में महावीर चैत्य में प्रतिष्ठा की, वहां से देवापुर में भी जिनप्रतिष्ठा की और वि० ० ७५० में स्वर्गवासी हुए । उग्रविहार से विचरते हुए नाड़ोलनगर प्राए । मानदेव बहुधा निर्वृति मार्ग की प्ररूपणा किया करते थे । इसलिये लोगों में वे निर्वृति आचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे वे जहां विचरते वहां रोगादि उपद्रव नहीं होते उनको युगप्रधान भी मानते थे । उन्होंने उपदेश देकर अनेक श्रीमाल ब्राह्मणों को जिनधर्म के अनुयायी बनाये थे । एक पल्लिवाल ब्राह्मण सरवरा गांव का रहने वाला, जो देवपाठी था, भाचार्य की महिमा सुनकर प्रब्रजित हुआ । उसने "सम्मतितर्क" शास्त्र का निर्माण किया । निर्वृति आचार्य वि० सं० ७८० के वर्ष में देवलोक प्राप्त हुए ।
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