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तृतीय-परिच्छेद ]
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कुशलसूरि तक की नामावलि पट्टक्रम से दी है और पहली, दूसरी, तीसरी पट्टावलियों में भी उद्योतन के बाद इसी पट्टकम से प्राचार्यो की नामावलि मिलतो है, परन्तु क्षमाकल्याणकजी की तरह जिनसिंह का नाम जिनेश्वरसूरि के बाद मूलक्रम में नहीं लिखा। इसके बाद के पट्टकम करीब मिलतेजुलते हैं, परन्तु देवसरि के पहले के पट्टक्रम सभी भिन्न-भिन्न प्रकार से लिखे गए हैं । इससे ज्ञात होता है कि इन लेखकों के सामने कोई एक प्रामाणिक पट्टावली विद्यमान नहीं थी।
__इस पट्टावली-संग्रह के सम्पापक ने पट्टावलियों में माने वाले पारस्परिक विरोधों की तरफ कुछ भी लक्ष्य नहीं दिया। इस प्रकार के ऐतिहासिक साहित्य के सम्पादन में सम्पादक को बड़ी सतर्कता रखनी चाहिए।
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