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[ पट्टावलो-पराग
प्रतिष्ठित कर देना, परन्तु प्रसन्नचन्द्राचार्य को भी जिनवल्लभ को गुरु-पद पर बैठाने का प्रस्ताव न मिला। उन्होंने भी अपने आयुष्य की समाप्ति के समय कपडवंज में अभयदेवसूरिजी की भावना की देवभद्राचार्य को सूचना दो। देवभद्राचार्य ने उसको स्वीकार किया। प्राचार्य अभयदेवसूरिजी कपडकंज में आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गवासी हुए । (५) जिनवल्लभ गरिण -
जिनवल्लभ गणि कुछ दिनों तक पाटन की परिसर-भूमि में विचरे, परन्तु वहां किसी को प्रतिबोध नहीं होता था, इसलिए उनका मन नहीं लगा, प्रतः दो साधुनों के साथ विधिधर्म के प्रचारार्थ चित्रकूट की तरफ विहार किया। वे देश भी बहुधा चैत्यवासी आचार्यों से व्याप्त थे। वहां के निवासी भी उन्हीं के भक्त थे, फिर भी अनेक गांवों में फिरते हुए चित्तौड़ पहुंचे। वहां ठहरने के लिये श्रावकों से स्थान पूछा, उन्होंने कहा"चण्डिका का मठ है, यदि वहां ठहरो तो", जिनवल्लभ ने कहा"तुम्हारी अनुमति हो तो वहीं ठहरें"। श्रावकों ने अनुमति दी। जिनवल्लभ गणि सभी विद्याओं में प्रवीण थे। धीरे-धीरे चित्तौड़ में उनकी प्रसिद्धि हो गई, ब्राह्मण आदि विद्वान् तथा इतर जिज्ञासु मनुष्य और कोई श्रावक भी उनके पास जाने लगे ।
आश्विन कृष्ण त्रयोदशी महावीर के गर्भापहार कल्याणक का दिन है, यदि देवालय में जाकर विस्तार से देववन्दन किया जाय तो अच्छा है। उस समय बहां विधि-चैत्य तो था नहीं - वे चैत्यवासियों के देवालयों में जाने लगे, तब एक साध्वी देवगृह के द्वार पर खड़ी होकर कहने लगी - १. गुर्वावली में जिनवल्लभ ने पाटन छोड़ा तब उन्हें "प्रात्मतृतीय” लिखा है, परन्तु
हमारी राय में जिनवल्लभ गणि अकेले ही पाटन से चित्तौड़ गये हैं, क्योंकि बाद के उनके जीवनवृत्त में उनके साथ में साधु होने की कोई सूचना तक नहीं मिलती, देवभद्र चित्तौड़ के लिए रवान होते हैं जब उन्हें नागौर लिखते हैं - "अपने परिवार के साथ चित्तौड़ चले आना, परन्तु उनके साथ परिवार था इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता । जिनवल्लभ के केवल एक "रामदेव" नामक शिष्य होने का उनके एक ग्रन्थ की अवचूर्णी से पता लगता है ।
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