________________
तृतीय- परिच्छेद ]
[ २८५
लिखा है । जिनवल्लभ ने कहा- यथाशक्ति प्रापकी प्राज्ञा का पालन करूंगा । जिस रास्ते से वे प्राये थे उसी रास्ते से चले गये । प्राशी दुर्गं से तीन कोश पर रहे हुए "माईयड " गांव में ठहरे और अपने आने की गुरु को खबर पहुँचाई । दूसरे दिन आशिका से आचार्य वहां आये । श्राशिका न आकर बीच में ठहरने का आचार्य ने कारण पूछा। जिनवल्लभ ने कहा मैं चत्यवास करना नहीं चाहता | आचार्य ने अनेक प्रकार से समझाया, पर जिनवल्लभ ने अपना निर्णय नहीं बदला । गुरु को वन्दन कर जिनवल्लभ फिर पत्तन की तरफ विहार कर गये। श्री अभयदेवसूरि के चरणों में जिनवल्लभ के आने से प्रभयदेवसूरि के मन का समाधान हो गया । वे मन में जानते थे कि जिनवल्लभ प्राचार्य पद के योग्य है, परन्तु देवगृह निवासी का शिष्य होने से गच्छ को यह बात मंजूर न होगी, यह विचार कर उन्होंने अपने पट्ट पर वर्द्धमानसूरि को बैठाया । जिनवल्लभ गरिए को अपनी उपसम्पदा १ देकर कहा - सर्वत्र हमारी प्राज्ञा से विचरना । एकान्त में प्रसन्नचन्द्राचार्य को कहा - अच्छे लग्न में जिनवल्लभ गरिए को मेरे पट्ट पर
-
१. उपसम्पदा का तात्पर्य क्या होता है इसको गुर्वावली लेखक समझा नहीं है, जिनवल्लम ने चित्रकूट की प्रशस्ति में अपने लिये स्वयं लिखा है कि "उसने अभयदेवसूरि के पास 'ज्ञानोपसम्पदा' लेकर तज्ञान की प्राप्ति की थी" । जिनवल्लभ अन्त तक अपने मूल गुरु कूर्चपुरीय श्री जिनेश्वरसूरि को अपना गुरु मानते थे, सं० ११३८ में लिखे गए “विशेषावश्यक भाष्य" की कोट्याचार्य कृत टीका के अन्त में लिखा है कि "यह पुस्तक प्रख्यात आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभ गरिग की है" "प्रश्नोत्तर एकषष्ठिशतक" में एक प्रश्नोत्तर में जिनवल्लभ गरिण लिखते हैं। “मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः" अर्थात् मेरे गुरुजी जिनेश्वरसूरि हैं। जिनवल्लभ गरिए क' इस प्रकार को स्पष्ट लेख मिलने पर भी गुर्वावली लेखक अभयदेवसूरि की उपसम्पदा को प्रव्रज्या मानकर जिनवल्लभ को अभयदेवसूरि का दीक्षित शिष्य मानते हैं यह उनका अज्ञान है । यदि जिनवल्लभ ने अभयदेवसूरि के समीप चरित्रोपसम्पदा ली होती तो उनको अपने पूर्वगुरु जिनेश्वरसूरि और उनके गच्छ का त्याग करना पड़ता और अभयदेवसूरि के गच्छ को अपना गच्छ और प्राचार्य उपाध्यायों को अपने प्राचार्य उपाध्याय मानने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, इससे सिद्ध है कि जिनवल्लभ गरिण अभयदेवसूरि के प्रतीच्छक मात्र थे, शिष्य नहीं ।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org