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[ पट्टावलो-पराग
प्राचार्य के सामने गए। ठाट के साथ जिनदत्तसूरि का नगरप्रवेश हुआ। वहां पर पार्श्वनाथ तथा ऋषभदेव के दो जिनालयों की प्रतिष्ठा की । अनेक श्रावकों ने सम्यक्त्व तथा देशविरति का व्रत स्वीकार किया, फिर वहां से पश्चिम में विहार करते हुए वागड़ में व्याघ्रपुर गये। वहां से जयदेवाचार्य को रुद्रपल्ली भेजा और मापने वहां रहते हुए "चर्चरी" की रचना की। पहले आपने वागड़ में रहते हुए जिन साधुओं को पठनार्थ धारा भेजा था, उन सब को अपने पास बुलाया और उनको सिद्धान्त सुनाया। जीवदेव को प्राचार्य-पद प्रदान किया। जिनचन्द्रगणि, शीलभद्रगणि, स्थिरचन्द्रगणि, ब्रह्मचन्द्रगणि, बिमलचन्द्रगणि, वरदत्तगणि, भुवनचन्द्रगरिण, वरणागगणि, रामचन्द्रगणि और मणिभद्रगणि इन दस को वाचनाचार्य-पद प्रदान किया। ___ श्रीमति, जिनमति, पूर्णश्री, जिनश्री और ज्ञानश्री इन पांच साध्वियों को महत्तरा का पद दिया। हरिसिंहाचार्य के शिष्य मुनिचन्द्र उपाध्याय के शिष्य जयसिंह को चित्तौड़ में प्राचार्य-पद दिया। उनके शिष्य जयचन्द्र को पाटन में प्राचार्य-पद पर स्थापित किया। इन दोनों को कहा - भागे रीति से चलना। सब पदस्थों को शिक्षा देकर विहारादि स्थानों का निर्देश करके आपने अजमेर की तरफ विहार किया।
विक्रमपुर के देवधर नामक श्रावक ने अपने नगर की तरफ जिनदत्तसूरिजी को विहार कराने का निश्चय किया। उसके सामने किसो ने इन्कार नहीं किया, वह श्रावक-समुदाय के साथ नागौर गया और वहां के प्रसिद्ध आचार्य देवचन्द्रसूरि के साथ आयतन अनायतन के विषय में वार्तालाप करने के उपरान्त देवधर श्रावक अपने समुदाय और कुटुम्ब के साथ विधि-मार्ग का अनुयायी बन गया ।
वहां से देवधर सपरिकर अजमेर गया और जिनदत्तसूरि को वन्दन कर विक्रमपुर की तरफ विहार करने की प्रार्थना की। अजमेर का कार्य निपटा कर देवधर के साथ जिनदत्तसूरिजी विक्रमपुर गए। वहां के अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध किया पौर भगवान् महावीर की प्रतिमा की स्थापना की।
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