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तृतीय-परिच्छेद ]
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सं० १२२७ में उच्चानगर में धर्मसागर धर्मचन्द्रादि की ६ दीक्षाएं हुई, एक श्राविका की दीक्षा हुई और जिनहित को वाचनाचार्य-पद दिया, उसी वर्ष में मरुकोट में शीलसागर, विनयसागर और उसकी बहन अजितश्री को गणिनी का व्रत दिया।
सं० १२२८ में सागरपाट में अजितनाथ और शान्तिनाथ चैत्यों की प्रतिष्ठायें की; उसी वर्ष विहार करके बब्बेरक गए । प्राशिका के निकट श्री पूज्य का प्रागमन सुनकर माशिका का समुदाय, वहां के राजा भीमसिंह के साथ उनके सामने गया और नगर में प्रवेश कराया। माशिका में बहिर्भूमि जाते एक दिगम्बर विद्वान् मिला, उससे कुछ वार्तालाप हुमा । नगर में बात फैली कि श्वेताम्बर प्राचार्य ने वाद में दिगम्बर को जीता राजा भीमसिंह ने अपनी प्रसन्नता प्रकट की। फाल्गुन शुक्ल ३ को वहां देवालय में पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापन कर वहां से सागरपाट जाकर देवकुलिका की प्रतिष्ठा की।
सं० १२२६ में घानपाली में संभवनाथ की प्रतिष्ठा और शिखर की प्रतिष्ठा की, सागरपाट में पं० मरिणभद्र के पद पर विनयभद्र को वाचनाचार्य-पद दिया।
सं० १२३० विक्रमपुर में स्थिरदेव, यशोधर, श्रीचन्द्र तथा प्रभयमति, जयमति, प्रासमति और श्रीदेवी को दीक्षा दी।
सं० १२३२ फाल्गुन सुदि १० को विक्रमपुर में गुणचन्द्र गणि के स्तूप की प्रतिष्ठा की, उसी वर्ष में विक्रमपुर के समुदाय के साथ आशिका की तरफ विहार किया और ज्येष्ठ शुक्ल ३ को प्रवेश किया । धूमधामपूर्वक पार्श्वनाथ प्रासाद पर दण्डकलश का प्रारोपण हुआ। साहु श्राविका ने ५०० पारुत्थ द्रम्मों से माला ग्रहण की, धर्मसागर गणि और धर्मरुचि की दीक्षा हुई। भाषाढ़ मास में कन्यानन के विधिचैत्य में श्री महावीरदेव की प्रतिमा स्थापित की, व्याघ्रपुर में पार्श्वदेव गणि को दीक्षा दी।
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