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तृतीय-परिच्छेद ]
[ २६३ प्राया, जो पर्याय में छोटा था, जिनदत्तसृरि वहां जाते तब वह प्राचार्य उनके साथ उचित व्यवहार नहीं करता था। आशधर प्रमुख जिनदत्तसूरि के श्रावकोंने अर्णोराज को विज्ञप्ति की कि हे देव ! हमारे गुरु जिनदत्तसूरिजी महाराज पधारे हुए हैं । राजा ने कहा - अच्छी बात है, कार्य हो तो कहो, श्रावकों ने कहा - एक जमीन का टुकड़ा चाहिए, जहां देवालय धर्मस्थान, श्रावक-कुटुम्बों के रहने के लिए मकान बनाये जासकें । राजा ने कहा - दक्षिण-दिशा में जो पर्वत दोख रहा है, उसकी तलभूमि में जो करना चाहो करो। राजा ने कहा - आपके गुरु महाराज के दर्शन तो हमें भी करना ! राजा के साथ जो कुछ बातचीत हुई थी, वह सब श्रावकों ने अपने गुरु को सुनायी । प्राचार्य ने कहा - ऐसे राजा को अपने पास बुलाना चाहिए। अच्छा दिन देखकर राजा को बुलाया, राजा ने प्राचार्य को नमस्कार किया। प्राचार्य ने राजा को निम्नलिखित याशीर्वाद का श्लोक अर्थ के साथ सुनाया -
"श्रिये कृतनतानन्दा, विशेषवृषसंगताः ।
भवन्तु भवतां भूप, ब्रह्मा श्रीवस्शंकगः ॥" आशीर्वाद सुनकर राजा प्रसन्न हुअा, बाद में श्रावकों ने स्तम्भनक, शत्रुञ्जय, उज्जयन्त, की कल्पना से पार्श्वनाथ ऋषभदेव और नेमिनाथ के बिम्बों की स्थापना की, भावना की । ऊपर के भाग में अम्बिका की देवकुलिका और नीचे गणधर आदि के स्थान रखने का विचार किया।
अजमेर से वागड़ की तरफ विहार किया। वहां के लोग पहले से ही जिनवल्लभसूरि के भक्त थे और उन्होंने जब सुना कि जिनवल्लभ के पट्टधर भी बड़े विद्वान हैं तो वे बहुत संतुष्ट हुए, कइयों ने दीक्षा ली, सुना जाता है कि वहां सब मिलकर ५२ साधु साध्वियों की दीक्षाएं हुईं।
उस प्रसंग पर जिनशेखर को उपाध्याय बनाकर कतिपय साधुनों के साथ रुद्रपल्ली की तरफ भेजा । वहां उसके सांसारी स्वजन रहते थे, उनके चित्तसमाधान के लिए जिनशेखर तपस्या करता था । कालान्तर में जिनदत्तसूरि भी रुद्रपल्ली की तरफ विचरे। जिनशेखरोपाध्याय श्रावकों के साथ
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