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[ पट्टावली-पराग
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किये हुए कुलक लेखों के साथ जिनवल्लभ मरिण ने गणदेव को बागड़ देश में धर्मप्रचार के लिए भेजा। वहां गणदेव ने सर्वलोकों को जिनवल्लभ मरिण दर्शित विधि-धर्म की तरफ भाकृष्ट किया था।
एक समय धारा नगरी में नरवर्मा राजा की सभा में दो दक्षिणी पंडित पाए, उन्होंने "कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः" यह पद सभा के पंडितों को दिया और मनेक पण्डितों ने समस्यापूर्तियां कीं, परन्तु आगन्तुक पण्डितों को एक भी समस्यापूर्ति सन्तुष्ट न कर सकी। इससे राजा ने जिनवल्लभ गरिण की प्रशंसा सुनकर उनसे समस्यापूर्ति कराने के लिए शोघ्रगतिक ऊंटों के साथ लेख लिख कर पुरुषों को चित्तौड़ भेजा। प्रतिक्रमण के समय बरवर्मा का प्रादमी जिनवल्लभ से मिला, पत्र दिया और जिनवल्लभ ने तुरन्त समस्यापूर्ति करके नरवर्मा के पुरुषों को दे दी। दाक्षिणात्य पण्डित समस्यापूर्ति सुनकर सन्तुष्ट हुए और राजा की तरफ से पारितोषिक पाकर चले गए।
जिनवल्लभ गरिण कुछ दिनों के बाद धारा नगर पहुंचे १ । राजा नरवर्मा ने जिनवल्लभ गरिण को अपने पास बुलाया और "समस्यापूर्ति के पारितोषिक के रूप में तोन लाख पारुत्थ अथवा तीन गांव लेने के लिए कहा, उत्तर में गरिणजी ने कहा - महाराज ! हम साधु लोग धन-संग्रह नहीं करते। चित्तौड़ में श्रावकों ने दो जिनमन्दिर बावाए हैं, उनकी पूजा के लिए आपको शुल्कशाला की आमदनी में से दो पारुत्थ प्रतिदिन दिलाइयेगा । राजा ने चित्रकूट की शुल्कमण्डपिका से प्रतिदिन दो पारुत्य चित्तौड़ के जैन-मन्दिरों में देने के लिए प्राज्ञा दो। १. जिनवल्लभ गरिण के धारा नगर जाने और चित्तौड़ के दोनों मन्दिरों के लिए
प्रतिदिन दो पारुस्थ नियत करवाने की हकीकत वाला सारा प्रकरण प्रक्षित है । गुर्वावली की अन्य प्रतियों में यह प्रकरण उपलब्ध नहीं होता, इस गुर्वावली की प्राचीन प्रति मिल गई होती तो इस प्रकार के तमाम कूटप्रकरणों का पता लग जाता, परन्तु अफसोस है कि प्राचीन प्रति के आदि के ५ पत्र ही उपलब्ध हुए, इसलिए लग-भग सम्पूर्ण प्रक्षिप्त पाठ गुर्वावली में रह गए हैं ।
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