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[ पट्टावली-पराग
साधुनों को वसति में ही ठहरना चाहिए, चैत्य में नहीं, इस बात को प्रमाणित किया।
श्री वर्द्धमानसूरि वसतिवास की स्थापना होने के बाद देश में सवत्र विचरने लगे। शुभ-लग्न देखकर उन्होंने जिनेश्वर गणि को अपना पट्टधर माचार्य बनाया। उनके भाई बुद्धिस गर को भी प्राचार्य-पद दिया। इनकी बहन कल्याणमती साध्वी को महत्तरा-पद दिया, बाद जिनेश्वरसूरि विहारक्रम से देश में घूमे और जिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभद्र, धर्मदेव, सहदेव, सुमति आदि अनेकों को दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया।
बर्द्धमानसूरिजी ने शास्त्रीय विधिपूर्वक भाबु ऊपर अनशन करके देवत्व प्राप्त किया। (२) जिनेश्वरसूरि -
जिनेश्वरसूरिजी ने जिनचन्द्र पोर अभयदेव को योग्य जानकर प्राचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया।
जिनेश्वरसूरि ने पाशापल्ली की तरफ विहार किया, वहां "लीलावती" कथा को रचना की, डीडवाना गांव में "कथानक कोष" बनाया ।
भगवान् महावीर के शासन-धर्म की प्रभावना कर श्री जिनेश्वरमूरि देवगति को प्राप्त हुए। (३) जिनचन्द्रसूरि -
जिनचन्द्रसूरि भी श्रेष्ठ प्राचार्य थे, जिनको अनेक नाममालाएं कण्ठस्थ थी। सर्व शास्त्रज्ञ प्राचार्य जिनचन्द्र ने अठारह हजार श्लोक
१. गुर्वावली में लिखा है कि जिनचन्द्रसूरि को “१८ नाममालाएं" सूत्र तथा अर्थ से याद थीं, यह अतिशयोक्ति मात्र है। नाममालाएं अनेक हो सकती हैं, परन्तु एक व्यक्ति के लिये दो नाममालाएं पर्याप्त हो जाती हैं । एक तो 'एकार्थ नाममाला" और दूसरी "अनेकार्था", जिस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र कृत "अभिधानचिन्तामणि" और "अनेकार्थ संग्रह" पढ़ने के बाद तीसरे कोश की आवश्यकता नहीं रहती, उसी प्रकार जिनचन्द्र के लिए भी दो कोशों से अधिक की आवश्यकता नहीं थी। "१८ नाममालाएं" बताना केवल अतिशयोक्ति है ।
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