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तृतीय-परिच्छेद ]
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शब्द-प्रयोग आपने दो जगह किया है। ऊपर की प्रतिज्ञा में पाठ प्राचार्यो के चरित्र लिखने की बात कही है, तब गुरिलो के ५०वें पृष्ठ में -
"इति श्रीजिनचन्द्रसूरि - श्री जिनपतिसरि - श्री जिनेश्वरसूरि सत्कसज्जनमनश्चमत्कारिप्रभावनावानामपरिमितत्वेऽपि तामध्यवर्तिन्यः कतिचित् स्थूलाः स्थूला वार्ताः श्रोचतुर्विधसंघप्रमोदार्थम् ।
"ढिल्लीवास्तव्यसाधु - साहुलिसुत सा हेमाभ्यर्थनया।
जिनपालोपाध्यायरित्थं ग्रथिताः स्वगुरुवार्ता. ॥" इसके बाद लेखक ने अपनी कृति के सम्बन्ध में विद्वानों के सामने तीन श्लोकों में अपना प्राशय व्यक्त किया है और अन्त में "उद्देशतोग्रंथ (?) १२४ ॥” इस प्रकार अपनी कृति का श्लोक-परिमारण भी लिख दिया है । लिखे हुए श्लोक-परिमारग में एक दूग्रा (२) रह गया है, वास्तव में श्लोकपरिमाण १२२४ लिखना चाहिए था। मणिधारी जिनचन्द्र, जिनपति और स० १३०५ तक जिनेश्वरसूरि का चरित्र सम्मिलित करने से उक्त तीन चरित्रों का श्लोक-परिमाण १२२४ ही बैठता है। ये ढाई चरित्र जिनपालोपाध्याय की कृति मान ली जाय तो भी प्राचार्य वर्धमा सूरि से जिनदत्त तक के छ: पुरुषों के चरित्रों का लेखक तो जिनपाल से भिन्न ही ठहरेगा, यह निर्विवाद है।
अब यहां प्रश्न यह उठता है कि प्रारम्भ में लेखक ने पाठ प्राचार्यो के चरित्र लिखने की प्रतिज्ञा की थी, अब छः प्राचार्यो के ही वृत्तान्त लिख कर शेष जिनपाल उपाध्याय के लिए क्यों छोड़ दिये ? प्रश्न वास्तविक है और इसका उत्तर निम्न प्रकार से दिया जा सकता है।
- प्रारम्भ, के छः आचार्यों का वृत्तान्त सुमतिगणि कृत गणधर सार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति में उपलब्ध होता है, उसको सामने रखकर प्रारम्भिक छः प्राचार्यो के वृत्तान्त किसी साधारण विद्वान् ने लिखे थे। उन वृत्तान्तों में भी पिछले समय में अनेक प्रक्षेप करके उन्हें विस्तृत बना लिया। जिस पुस्तक के ऊपर से प्रस्तुत बृहद् गुर्वावली छपी है, वह अनेक
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