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[ पट्टावलो-पराग
४१ देल्लमहत्तर -
देल्लमहत्तराचार्य मालवा से विचरते हुए भीनमाल आए, उस समय भीनमाल में सुप्रभ नामक एक वेदपारग बाह्मण रहता था। उसका दुर्ग नामक पुत्र नास्तिक था, जो परलोकादि कुछ नहीं मानता था। प्राचार्य देल्लमहत्तर ने उसको प्रतिबोध दिया और दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया, वह निर्मल चारित्र पालता हुमा विचरने लगा । उस समय शानपुर नामक गांव में एक सुखपति नामक क्षत्रिय रहता था । उसके एक पागल पुत्र था, क्षत्रिय ने प्राचार्य को कहा - मेरे पुत्र का पागलपन मिटाइये, जो मेरे पुत्र का पागलपन मिटाएगा, उसको शासन दूगा । प्राचार्य ने कहा - पागलपन तो मिटाऊँगा, परन्तु उसको दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाऊँगा, मंजूर हो तो कहो, क्षत्रिय ने स्वीकार किया। प्राचार्य ने विद्या-प्रयोग से उसका ग्रथिलपन मिटाया, वह बिल्कुल अच्छा हो गया। बाद में उसको प्रतिबोध देकर दीक्षित किया, क्रमशः शास्त्राध्ययन करके वह विद्वान् हुआ। प्राचार्य देल्लमहत्तर ने अपने दोनों शिष्यों को प्राचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया, बाद में वे स्वर्गवासी हो गये।
४२ दुर्गस्वामी, गर्गाचार्य- दुर्गस्वामी और गर्गाचार्य विचरते हुए श्रीमाल
नगर गए, वहां पर एक धना नामक सेठ जैन श्रावक रहता था। उसके घर पर सिद्ध नामक राजपुत्र था। उसको गर्गाचार्य ने दीक्षा दी, वह अतिशय बुद्धिमान तर्कशील था। एक बार उसने अपने गुरु से पूछा, – इससे अधिक या इसके
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