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[ पट्टावली-पराग
४४ धर्ममति - ४५ नेमिसूरि -
४६ सुव्रतसूरि -
वासी हुए, उनका शिष्य श्रीषेण प्राचार्य-पद पर था । गर्गाचार्य भी वि० सं० ६१२ में कालगत हुए। गर्गाचार्य के पट्ट पर सिद्धाचार्य और श्रीषेणाचार्य दोनों आचार्य इस प्रदेश में विचरते थे, कालान्तर में श्रीषेणा चार्य मालव देश गए, वहां पर नोलाई में धर्मदास श्रेष्ठो के पुत्र को दीक्षा दी, नगररांधकारित जिनचैत्य में प्रतिष्ठा को, सिद्धर्षि आचार्य वि० सं० ९६८ में देवलोक प्राप्त हुए। श्री सिद्धर्षि के पट्ट पर धर्ममति प्राच.यं हुए, धर्ममति के पट्ट पर श्री नेमिस रि हुए और उनके पट्ट पर सुव्रतस रि हुए। आचर्य सुव्रत के समय बहुतेरे गणभेद हुए, प्राचार्यों के आपस में विवाद खड़े हुए, अपनेअपने श्रावक-श्राविकाएं भी संगृहीत हुए, सुव्रतस रि के शिष्य भी शिथिल विहारी हो गए। उनमें एक दिनेश्वर नामक साधु था, वह बड़ा पण्डित था, सुव्रतस रि विक्रम सं० ११०१ में देवलोक प्राप्त हुए। उनके पट्ट पर दिनेश्वर उग्रविहारो हुए - महात्मा दिनेश्वरस रि विहार करते पाटण गए और वहां महेश्वर जाति के वणिकों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। दिनेश्वरस रि के पट्ट पर महेश्वरसूरि हुए। महेश्वरस रि एक बार नाडलाई गए, वहां पल्लिवाल बाह्मण रहते थे। उनको प्रतिबोध देकर श्रद्धावान् श्रावक किया, लोगों ने महेश्वरस रि के श्रमण समुदाय का 'पल्लिवाल गच्छ” यह नाम
४७ दिनेश्वरसूरि -
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महेश्वरसूरि -
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