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द्वितोय-परिच्छेद ]
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विक्रमात् १२५० में पूर्णमीया से मांचलीया बनकर देवभद्र और शील भद्रसरि ने आगमिक मत प्रकट किया।
___ सं० ११४० वर्षे नवांगी वृत्तिकर्ता श्री अभयदेवसूरि और उनके पट्टधर जिनवल्लभसरि कूर्चपुर गच्छीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य हुए और चित्रकूट ऊपर छः कल्याणकों को प्ररूपणा की। ___ "पत्तने स्त्रीजिन पूजा उत्थापिता, संघभयेन उष्ट्रिकावाहनेन जावालिपुरे गतः तेन लोकैः पौष्टिक नाम दत्तं ॥'
हमारी एक संवत् १८५० में लिखी हुई भाषा पट्टावली जो विजयजिनेन्द्रसूरि के समय की लिखी हुई है, इस पट्टावली में अनेक प्रज्ञानपूर्ण स्खलनाएं दृष्टिगोचर होती हैं । जैसे सुधर्मा स्वामी की छद्मस्थावस्था ४२ वर्ष और केवली पर्याय १८ वर्ष का मानना ।
प्रभव-स्थविर के युगप्रधान पर्याय के १४ वर्ष लिखना । यशोभद्रसूरिजी का आयुष्य ६० वर्ष का लिखना ।
स्थूलभद्रजी का प्रायुष्य ८० वर्ष का लिखना और उनका स्वर्गवास महावीरनिर्वाण से २५० में मानना।।
वज्रसेनसूरि का प्रायुष्य ६० वर्ष का लिखना ।
जयानन्दसूरि के पट्टधर श्री रविप्रभातरि को जिननिर्वाण से ११६० में मानना।
श्री हेमविमलसरि के समय में तपागच्छ के तीन फाटे पड़े । कममकलशा, कतकपुरा, वड़गच्छा ।।
सं० १५६२ में कडुग्रामत-गच्छ सं० १५७२ में बीजामत-गच्छ
सं० १५८२ में पाश्वंचन्द्र गच्छ श्री दानसरि के समय में सागरमति-गच्छ निकला और सं० १६६२ में विजयदानसूरि का स्वर्गवास ।
सं० १६२९ में मेघजी ऋषि आदि ठाणा २७ ने प्राचार्य हीरसृरिजी के हाथ से दीक्षा ली।
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