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द्वितीय-परिच्छेव ]
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विजयदानसूरि के पटघर श्री होरसूरिजी का पालनपुर में १५८३ में जन्म, १५६६ में पाटन में दीक्षा, १६०७ में नाड़लाई में पण्डित पद, १६०८ में नाडलाई में बाचक पद श्रोर १६१० में सिरोही में प्राचार्य पद हुप्रा था । श्राचार्य श्री हीरसूरि ने सिरोही, नाड़लाई, श्रहमदाबाद, पाटन श्रादि नगरों में हजारों जिनबिम्बों की प्रतिष्ठायें की ।
श्रहमदाबाद नगर में लुकामत के प्राचार्य श्री मेघजी ने अपने २५ मुनियों के साथ श्री हीरसूरिजी के पास दीक्षा ली ।
प्राचार्य श्री हीरसूरिजी के उपदेश से बादशाह श्री अकबर ने गुजरात, मालवा, विहार, अयोध्या, प्रयाग, फतेहपुर, दिल्ली, लाहौर, मुलतान, काबुल, अजमेर और बंगाल नामक १२ सूबों में षाण्मासिक प्रमारिप्रवर्तन किया, "जजीया" टेक्स नामक कर बंद कर दिया ।
! " सिर विजयसेर सूरि-प्पमुहेहि रोगसाहुवग्गेहि । परिकलिया पुहविले, विहरन्ता दितु में भद्दं ॥२०॥"
श्री विजय हीरसूरि के पट्ट पर श्री विजयसेनसूरि हुए, श्री विजयसेनसूरि प्रमुख श्रनेक श्रमणवर्ग के साथ परिवृत पृथ्वीतल पर विचरते हुए, श्री विजयहीरसूरि मेरे लिये कल्याणकारक हों ।
इस प्रकार महोपाध्याय धर्मसागर गरिण विरचिता तपागच्छपट्टावली सूत्र - वृत्तिसहिता समाप्ता ।
यह पट्टावली श्री विजयही रसूरीश्वरजी के प्रादेश से उपाध्याय श्री विमलहर्षगणी, उपाध्याय श्री कल्याणविजयगरणी, उपा० श्री सोमविजयगणी, पं. लब्धिसागरगणी, प्रमुख गीतार्थो ने इकट्ठा होकर सं. १६४८ के मंत्र बदि ६ शुक्रवार को अहमदाबाद नगर में श्री मुनिसुन्दर कृतगुर्वावली, जीयां पट्टावली दुष्षमा संघ स्तोत्रयंत्रक आदि के प्राधार से सुधारी है, फिर भी इसमें जो कुछ शोधन योग्य हो उसको मध्यस्थ गीतार्थों को सुधार लेना चाहिये ।
पट्टावली संशोधन होने के पहले इसकी अनेक प्रतियां लिखी जा चुकी हैं. इसलिये उनको संशोधित पट्टावली के अनुसार शुद्ध करके फिर पढ़ना चाहिये, ऐसी श्री विजयही रसूरीश्वरजी महाराज की आज्ञा है ।
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