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[ पट्टावली-पराग
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. श्री विजयसेनसूरि के पट्ट पर ६०वें पट्टधर तपागरण के सूर्य समान श्री विजयदेवसूरि तप रहे हैं। विजयदेवसूरि का जन्म सं० १६३४ में ईडरगढ़ में हुआ था था। सं० १६४३ में अपनी माता के साथ दीक्षा ली थी, स० १६५५ में पण्डिस-पद और सं० १६५६ में सूरि-पद तथा १६५८ में पाटन में गच्छानुज्ञा नन्दी हुई ।
अहमदाबाद, पाटन और स्तम्भतीर्थ में क्रमश: दो, चार और तीन प्रतिष्ठाएँ करवा कर आपने अपनी जन्मभूमि ईडरगढ़ में चातुर्मास्य किया। वहां पर बड़ी प्रभावना हुई । चातुर्मास्य के बाद वडनगर में वीरजिन की प्रतिष्ठा करवा कर राजनगर गए और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया। इस समय दमियान ईडरगढ़ में मुसलमानों द्वारा ऋषभदेव प्रतिमा खण्डित हो गई थी, इसलिये वहां के श्रावकों ने उसी प्रमाण का नया जिन बिम्ब बनवा कर नडियाद की बड़ी प्रतिष्ठा में प्राचार्य विजयदेवसूर द्वारा प्रतिष्ठित करवा के ईडर के किले पर के चैत्य में स्थापित करवाया।
एक समय वादशाह जहांगीर ने प्राचार्य विजयदेवपूरि के सम्बन्ध में कुछ विरुद्ध बातें सुनीं, इससे बादशाह ने खम्भात से बहुमानपूर्वकसूरिजी को अपने पास बुलाया, उनसे अनेक बातचीतें की जिन्हें सुनकर बादशाह को बड़ा सन्तोष हुमा और देवसूरि की विरोधी पार्टी की बातों से बादशाह के मन पर जो कुछ विपरीत असर हुआ था, बह मिट गया और बादशाह ने कहा – श्री हीरसूरिजी तथा विजयसेनसूरिजी के पट्ट पर सर्वाधिकार पाने के योग्य ये ही प्राचार्य हैं, दूसरा कोई नहीं, इत्यादि प्रशंसा करते हुए बादशाह ने उनको “जहांगिरी महातपा" यह बिरुद देकर शाही ठाट के साथ सूरिजी को अपने स्थान पहुँचवाया।
____ कालान्तर में विजयदेवसूरिजी गुजरात होते हुए, सौराष्ट्रदेशान्तर्गत दीवबन्दर गए। वहां के फिरंगी शासक ने आपको धार्मिक व्याख्यान देने की इजाजत दी, आप भी वहां २ वर्षाचातुर्मास्य कर जामनगर होते हुए शत्रुञ्जय को यात्रा करके खम्भात पधारे और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया । चातुर्मास्य के बाद खम्भात से विहार कर सावलो स्थान में पहुंचे और
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