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[पट्टावली-पराग
देशों में दुष्काल पड़े, पर सौराष्ट्र में उसका प्रसार नहीं हुआ । सं० १७२३ में घोघा बन्दर में अनेक जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई और इसके बाद अहमदाबाद नगर के संघ के प्राग्रह से आपने गुजरात की तरफ विहार किया।
सिरिविजयरयणसूरि-पमुहेहि रणेगसाहुबग्गेहि । परिकलिया पुह विमले, सूरिवरा दिन्तु मे भई ॥४॥'
श्री विजयरत्नसूरि प्रमुख अनेक साधु-वर्गो से परिवृत पृथ्वीतल पर विचरते श्री विजयदेवसूरि के पट्टधर श्री विजयप्रभसूरि कल्याणप्रद हों; जिनके गुजरात, मारवाड़, मालवा, मेवाड़, मेवात, कच्छ, हालार, सौराष्ट्र, दक्षिणादि देशों में तपःतेज के प्रताप से धर्मकार्य निर्विघ्नता से हो रहे हैं।
"श्रीविजयप्रभसूरे - रुपासकः श्री कृपादिविजयानाम् । विदुषां शिष्यो मेघः, संबन्धमिमं लिलेख मुदा ॥३॥"
श्री विजयप्रभसूरि के चरणसेवी और पण्डित श्री कृपाविजयजी के शिष्य मेघविजय ने पट्टावली का यह सम्बन्ध सहर्ष लिखा ।
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