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द्वितीय-परिच्छेद
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परिधापनिका दो। क्रम से आम्रपद्र नगर पहुँचे, वहां पं० विद्यारत्न गरिण को तथा विद्याजय गरिण को पं० पद दिया । क्रमशः १६०२ में अहमदाबाद चातुर्मास्य किया। सं० १६०५ में खम्भात में चातुर्मास्य किया और संघ समवाय मिलनपूर्वक सं० १६०५ के माघ शु० ५ के दिन गच्छाधीश पद की स्थापना हुई, सं० १६०८ में राजपुर में चातुर्मास्य ठहरे, सं० १६१० पाटन में फिर चातुर्मास्य किया और वैशाख शु० ३ के दिन जिनबिम्बों को प्रतिष्ठा की, सं० १६१७ में अक्षयदुर्ग में चातुर्मास्य ठहरे। सं० १६१६ में खम्भात में चौमासा किया, चातुर्मास्य के बाद नन्दुरबार गए और संघ के प्राग्रह से चातुर्मास्य वहीं किया, सं० १६२३ में ग्रहमदाबाद में मभिग्रह किया। सं० १५६६ वर्षे कातिक सुदि १५ का जन्म, १६०१ के कातिक सुदि १५ को दीक्षा और सं० १६११ में कार्तिक वदि ५ को पण्डित-पद, १६२५ पाटन में प्राचार्यपद और "आनन्दसोमसूरि" यह नाम रक्खा, सोमविमलसूरिजो ने गण को परिधापनिका दी।
सं० १६३० में अहमदाबाद में मा० शु० ५ के दिन प्रानन्दसोमाचार्य को गणानुज्ञा हुई । उस समय में हससोम गरिण तथा देवसोम गणि को वाचक-पद दिए, सोमविमलजी की उपस्थिति में सं० १६३६ के भाद्र० वदि ६ को श्री मानन्दसोमसूरि स्वर्गवास प्राप्त हुए। बाद में हेमसोम को सूरि-पद दिया गया, सं० १६३७ में मार्ग. में सोमविमल सूरि स्वर्गवासी हुए। २०० साधुओं की दीक्षा इनके हाथ से हुई थी।
६१ श्री हेमसोमसूरि -
सं० १६२३ वर्षे ढंढार प्रदेश में इनका जन्म, पोरवाल जाति के थे। १६३० में बड़गांव में सोमविमलसूरि द्वारा दीक्षा, गृहस्थ नाम हर्षकुमार था पौर दीक्षा नाम हेमसोममुनि रक्खा, १६३५ में पण्डित-पद १६३६ में वैशाख सुदि २ को मुनि हेमसोम को प्राचार्य-पद, प्रपने गच्छवासियों को एवं अन्यगच्छीय साधुओं को परिधापनिका दो और हेमसोमसरि गच्छाधिए घोषित किये गये।
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